SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्यवहार भाष्य एक अनुशीलन द्वीन्द्रिय की परितापना होने पर दो कल्याणक अर्थात् पुरिमार्ध ( दो प्रहर) । त्रीन्द्रिय की परितापना होने पर तीन कल्याणक अर्थात् एकाशन । चतुरिन्द्रय की परितापना होने पर चार कल्याणक अर्थात् आचाम्ल । पंचेन्द्रिय की परितापना होने पर पांच कल्याणक अर्थात् उपवास। पुरुषों में अठारह स्त्रियों में बीस तथा नपुंसक में दस प्रकार के व्यक्ति दीक्षा के अयोग्य माने गए हैं। इनको प्रव्रजित करने वाला सचित्त विषयक प्रायश्चित्त का भागी होता है। इसका विस्तृत वर्णन बृहत्कल्पभाष्य एवं पंचकल्पभाष्य में मिलता है । अचित्त प्रायश्चित्त पिंड एवं उपधि ग्रहण करते समय होने वाली स्खलना से प्राप्त प्रायश्चित्त। एषणा एवं उत्पादन के दोषों से युक्त भोजन ग्रहण करने पर तथा अविधि से उपधि आदि ग्रहण करने पर प्राप्त प्रायश्चित्त । क्षेत्र एवं काल विषयक प्रायश्चित्त जनपद, मार्ग, सेना का अवरोध, मार्गातीत (क्षेत्रातिक्रान्त आहार करना) – इनमें अविधि से होने वाले दोष का प्रायश्चित्त क्षेत्रविषयक प्रायश्चित्त है । दुर्भिक्ष, सुभिक्ष, दिन में या रात में होने वाली अविधि के कारण प्राप्त प्रायश्चित्त काल विषयक प्रायश्चित है। भाव विषयक प्रायश्चित्त इसका अर्थ है- योगत्रिक एवं करणत्रिक की अशुभ प्रवृत्ति, निष्कारण दर्प की प्रतिसेवना, पांच प्रकार के प्रमाद से सम्बन्धित प्रायश्चित्त । भाव विषयक प्रायश्चित्त में पुरुषों के आधार पर भी प्रायश्चित्त दिया जाता है। पुरुषों के तीन प्रकार हैं- परिणामक, अतिपरिणामक, अपरिणामक । इन तीनों के तुल्य अपराध में भी प्रायश्चित्त में नानात्व रहता है। इसके अतिरिक्त ऋद्धिमन्निष्क्रान्त, अऋद्धिमन्निष्क्रान्त, असह, ससह, पुरुष, स्त्री, नपुंसक, बाल, तरुण, स्थिर, अस्थिर, कृतयोगी, अकृतयोगी, सप्रतिपक्ष, अप्रतिपक्ष इन सबके तुल्य अपराध होने पर भी पुरुष भेद से प्रायश्चित्त में भिन्नता रहती है। इसी प्रकार स्वभाव की दृष्टि से दारुण एवं भद्रक इन दोनों के समान अपराध में भी प्रायश्चित्तदान में भेद रहता है। " - व्यवहार का एक अर्थ है-प्रायश्चित्त प्रायश्चित्त के आधार पर व्यवहार के मुख्यतः तीन भेद किए गए हैं-गुरुक, लघुक और लघुस्वक इन तीनों के तीन-तीन प्रकार हैं गुरुक, गुरुतरक, यथागुरुस्वक । लघु लघुतरक, यथालपुस्वक। लघुस्व, लघुस्वतरक, यथालघुस्वक। गुरुक व्यवहार अर्थात् एक मास का प्रायश्चित्त। यह तेले की तपस्या से पूरा हो जाता है । गुरुतरक व्यवहार अर्थात् चार मास का प्रायश्चित्त । यह चोले की तपस्या से पूरा हो जाता है। यथागुरुस्वक व्यवहार अर्थात् छह मास का प्रायश्चित्त यह पंचोले की तपस्या से पूरा हो जाता है। लघुक व्यवहार अर्थात् तीस दिन का प्रायश्चित्त। यह बेले की तपस्या से पूरा हो जाता है । लघुतरक व्यवहार अर्थात् पच्चीस दिन का प्रायश्चित्त यह उपवास की तपस्या से पूरा हो जाता है यथालघुस्वक व्यवहार अर्थात् बीस दिन का प्रायश्चित्त यह आचाम्ल की उपस्या से पूरा हो जाता है। लघुस्वक व्यवहार अर्थात् पन्द्रह दिन का प्रायश्चित्त यह एकलठाणा की तपस्या से पूरा हो जाता है। । [ ५३ १. व्यभा. ४०११, ४०१२ । २. व्यभा. ४०१३ | ३. व्यभा. ४०१० । ४. व्यभा. ४०१७-२६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002531
Book TitleAgam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya
Original Sutra AuthorSanghdas Gani
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages860
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vyavahara
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy