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________________ ५२] व्यवहार भाष्य श्रुत आभवद् व्यवहार श्रुतसंपद् के दो प्रकार हैं -अभिधारण और पठन। इन दोनों के दो-दो प्रकार हैं- अनंतर और परंपर। दो के मध्य जो श्रुतोपसंपद् होती है, वह अनंतर है और तीन आदि के मध्य होने वाली श्रुतोपसंपद् परंपर कहलाती है। इसी सदंर्भ में भाष्यकार ने सान्तरा और अनन्तरा वल्ली के विषय में जानकारी दी है। उनके अनुसार अनन्तरा वल्ली में ये छह व्यक्ति उल्लिखित हैं-माता, पिता, भ्राता, भगिनी, पुत्री और दुहिता। सान्तरा वल्ली-नानी, नाना, मातुल, मौसी, दादा, दादी, चाचा, बुआ तथा भाई की सन्तान-भतीजा, भतीजी, बहिन की सन्तान-भानजी, भानजा, पुत्र की सन्तान-पौत्र, पौत्री आदि । इस विषय में भाष्यकार ने विस्तृत चर्चा प्रस्तुत की है। सुख-दुःख आभवद् व्यवहार इसके दो प्रकार हैं-अभिधार और उपसम्पन्न। मार्गोपसंपद् आभवद् व्यवहार कोई मार्गज्ञ मुनि अन्य देश के लिए प्रस्थित है। दूसरा मुनि भी उसी देश में जाने का इच्छुक है। वह मार्गज्ञ साधु के पास उपसंपदा ग्रहण करता है। यह मार्गोपसंपद् है। इसमें मुख्यता मार्गज्ञ मुनि की होती है। विनयोपसंपद् आभवद् व्यवहार वास्तव्य तथा आगंतुक मुनियों के विनय व्यवहार का निर्देशक तत्त्व है-विनयोपसम्पद् । आगंतुक मुनियों द्वारा वर्षा-प्रायोग्य क्षेत्र पूछे जाने पर यदि वास्तव्य मुनि मौन रहते हैं तो प्रायश्चित्त के भागी होते हैं तथा आगन्तक व्यक्ति यदि इस विषय की पृच्छा नहीं करते तो वे स्वयं प्रायश्चित्त के भागी होते हैं। इसी प्रकार भाष्यकार ने रालिक तथा अवमरात्निक के पारस्परिक वंदना, आलोचना आदि के विषय में भी पर्याप्त विमर्श किया है। प्रायश्चित्त व्यवहार प्रायश्चित्त व्यवहार के चार प्रकार हैं-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव। द्रव्य के दो भेद हैं-सचित्त एवं अचित्त। सचित्त-प्रायश्चित्त सचित्त-प्रायश्चित्त दो प्रकार का है। प्रथम तो जीवों की विराधना होने पर तथा दूसरा सूत्र में निषिद्ध व्यक्तियों को दीक्षा देने पर। सजीव की विराधना होने पर मिलने वाले प्रायश्चित्त के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं एकेन्द्रिय जीवों का अपद्रावण होने पर उपवास। द्वीन्द्रिय जीवों का अपद्रावण होने पर बेला। त्रीन्द्रिय जीवों के अपद्रावण होने पर तेला। चतुरिन्द्रिय जीवों के अपद्रावण होने पर चोला। पंचेन्द्रिय जीवों के अपद्रावण होने पर पंचोला। अथवा जिसके जितनी इंद्रियां हैं उतनी विराधना होने पर उतने ही कल्याणक का प्रायश्चित्त आता है। एकेन्द्रिय की परितापना होने पर एक कल्याणक। १. व्यभा. २१५७-६१, ३६५८-८०। २. व्यभा.३६८१-६२। ३. व्यभा.३६६३-६६ ४. व्यभा.४०००-४००८| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002531
Book TitleAgam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya
Original Sutra AuthorSanghdas Gani
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages860
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vyavahara
File Size14 MB
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