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________________ व्यवहार भाष्य : एक अनुशीलन [७७ आलोचना के दोष आकम्प्य-आलोचनाचार्य की वैयावृत्त्य करके उनकी कृपा प्राप्त कर आलोचना करना। अनुमान्य-'ये आचार्य मृदुदंड देंगे', ऐसा सोचकर उनके पास आलोचना करना। निशीथ चूर्णि में इसका अर्थ 'मैं दुर्बल हूं अतः मुझे कम प्रायश्चित्त दें' ऐसा अनुनय कर आलोचना करना किया है। यदृष्ट-उसी दोष की आलोचना करना, जो दूसरों के द्वारा या आचार्य के द्वारा दृष्ट या ज्ञात है। बादर-अवज्ञा के भय से केवल स्थूल दोषों की आलोचना करना, सूक्ष्म दोषों को छुपाना। सूक्ष्म-केवल सूक्ष्म दोष की आलोचना करना, स्थूल की नहीं। छन्न-प्रच्छन्नरूप से आलोचना करना अथवा मंद शब्दों में आलोचना करना, जिससे गुरु स्पष्ट न सुन सकें। शब्दाकुल-जोर-जोर से बोलकर आलोचना करना, जिससे कि अगीतार्थ मुनि भी उसे सुन सके। बहुजन-इसके तीन अर्थ मिलते हैं(१) अनेक लोगों के बीच आलोचना करना। (२) जहां आलोचना करने वाले अधिक हों, वहां आलोचना करना। (३) एक के आगे आलोचना कर फिर दूसरे के पास भी आलोचना करना। अव्यक्त-अगीतार्थ के पास आलोचना करना। __तत्सेवी-उसी गुरु के पास आलोचना करना, जो उस दोष का सेवन कर चुका है अथवा सेवन करता है। इससे शिष्य सोचता है कि गुरु स्वयं उस दोष का प्रतिसेवी है इसलिए मुझे अल्प प्रायश्चित्त देंगे। षट्प्राभृत में तत्सेवी का अर्थ-जिस दोष का प्रकाशन किया है उसका पुनः सेवन करना किया है। तत्त्वार्थवार्तिक में आलोचना के दस दोषों में कुछ अंतर मिलता है। आलोचना का काल दोनों पक्षों की अष्टमी, नवमी, षष्ठी, चतुर्थी एवं द्वादशी-ये अप्रशस्त तिथियां हैं। इसके अतिरिक्त कुछ नक्षत्र भी आलोचना आदि के लिए अप्रशस्त माने गए हैं। सन्ध्यागत (चौदहवां-पन्द्रहवां) नक्षत्र में आलोचना करने पर कलह का उद्भव होता है। विलंबी नक्षत्र (सूर्य द्वारा परिभुक्त होकर त्यक्त) में कुभोजन की प्राप्ति, विद्वारिक नक्षत्र में शत्रु की विजय, रविगत नक्षत्र में अशांति, संग्रह (क्रूर ग्रह से आक्रान्त) नक्षत्र में संग्राम का उद्भव, राहुहत (सूर्य एवं चन्द्रग्रहण) नक्षत्र में मृत्यु तथा ग्रहभिन्न (जिसके मध्य से ग्रह चला गया) नक्षत्र में रक्तवमन होता है। अतः ये सात नक्षत्र आलोचना के योग्य नहीं हैं। __ अप्रशस्त तिथियों के अतिरिक्त सभी तिथियां प्रशस्त हैं। व्यतिपात आदि दोष वर्जित दिवस तथा प्रशस्त मुहूर्त एवं करण में आलोचना करनी चाहिए। आलोचक को उच्चस्थानगत ग्रहों में अथवा बुध, शुक्र, बृहस्पति, चन्द्र आदि सौम्य ग्रहों में, इन ग्रहों से सम्बन्धित राशियों में तथा इन ग्रहों के द्वारा अवलोकित लग्नों में आलोचना करनी चाहिए। आलोचना का स्थान एवं दिशा आलोचना करने में स्थान एवं दिशा आदि का विवेक भी आवश्यक है। अप्रशस्त स्थान अर्थात् भग्नगृह अथवा रुद्रदेव का मंदिर, अमनोज्ञ तिल, माष, कोद्रव आदि धान्यों के ढेर के निकट तथा अमनोज्ञ वृक्ष, जैसे-निष्पत्रक करीर, बदरी, बबूल, दवदग्ध १. निचू ४ पृ. ३६३। २. व्यभा. ५२३ : भ. २५/५५२ : आकंपइत्ता अणुमाणइत्ता, जं दिलै बादरं च सुहुमं वा। ___ छन्नं सद्दाउलयं, बहुजणअव्वत्त तस्सेवी। भआ-५६४-६०८ ३. षट्प्राभृत १/ श्रुतसागरीय वृत्ति पृ. ६ ४. तत्त्वार्थवार्तिक ५२२ पृ. ६२० । ५. व्यभा.३०। ६. व्यभा.३१०,३११। ७. व्यभा.३१४। ८ व्यभा.३०६। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002531
Book TitleAgam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya
Original Sutra AuthorSanghdas Gani
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages860
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vyavahara
File Size14 MB
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