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व्यवहार भाष्य
क्षान्त-जो क्षान्त-क्षमाशील होता है, वह गुरु आदि के कठोर प्रायश्चित्त को भी सम्यक् मानता है। दान्त-जो दान्त होता है, वह प्रायश्चित्त रूप में प्राप्त तपस्या का सम्यग् निर्वहन करता है। अमायी-जो अमायी होता है, वह कुछ भी छुपाए बिना आलोचना करता है।
अपश्चात्तापी-जो अपश्चात्तापी होता है, वह यह कभी नहीं सोचता कि मैंने अभी आलोचना करके उचित कार्य नहीं किया। मैं प्रायश्चित्त को कैसे वहन करूंगा? वह मानता है-मैं कृत-पुण्य हूं कि मैंने दोषों का प्रायश्चित्त कर लिया।
आलोचना का क्रम
प्रतिसेवना होने पर साधु को अपने गच्छ में आचार्य के पास आलोचना करनी चाहिए। उनके अभाव में क्रमशः उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणावच्छेदक के पास आलोचना करनी चाहिए। अपने गच्छ में इन पांचों के न होने पर अन्य सांभोजिक गण के पास जाना चाहिए। वहां भी आचार्य आदि के क्रम से आलोचना करने का क्रम निर्दिष्ट है। क्रम का उल्लंघन करने पर चार लघु मास के प्रायश्चित्त का विधान है।
अन्य सांभोजिक गण के आचार्य आदि के अभाव में असांभोजिक संविग्न गण के आचार्य के पास आलोचना करनी चाहिए। उनकी अविद्यमानता में क्रमशः पार्श्वस्थ, गीतार्थ, सारूपिक, पश्चात्कृत गीतार्थ के पास आलोचना करनी चाहिए। पश्चात्कृत को इत्वरिक सामायिक व्रत देकर भी आलोचना की जा सकती है, जिससे उसकी वंदना या कृतिकर्म किया जा सके।
इन सबके अभाव में भरुकच्छ के कोरंटक उद्यान या गुणशिल उद्यान में जाकर तेले के द्वारा देवता का आह्वान कर सम्यक्त्वी देवता के समक्ष आलोचना करनी चाहिए। यदि उस देवता के स्थान पर कोई दूसरा देवता उत्पन्न हो गया है तो उसको आह्वान करने पर वह देवता कहता है कि अभी महाविदेह में तीर्थंकर को पूछकर आता हूं। वह महाविदेह क्षेत्र में तीर्थंकर से पूछकर साधु को प्रायश्चित्त देता है। उन देवताओं के अभाव में तीर्थंकर प्रतिमा के समक्ष स्वयं आलोचना करके स्वयं ही प्रायश्चित्त ग्रहण कर ले। अथवा पूर्व दिशा की ओर अभिमुख होकर अर्हत् एवं सिद्ध की साक्षी से अपनी प्रतिसेवना की आलोचना कर स्वयं ही प्रायश्चित्त ग्रहण करे। आलोचना करने की विधि
आलोचक सर्वप्रथम अपने नए वस्त्रों से अथवा नए प्रातिहारिक वस्त्रों से निषद्या तैयार करे। उस पर आचार्य पूर्वाभिमुख होकर बैठें। आलोचक दक्षिण या उत्तराभिमुख होकर खड़ा रहे। यदि आचार्य उत्तराभिमुख विराजित हों तो आलोचक वामपार्श्व में पूर्वाभिमुख होकर खड़ा रहे। यदि आलोचना-प्रदाता तीर्थंकर आदि विशिष्ट व्यक्तियों के विहरण की दिशा के अभिमुख बैठे हों तो आलोचक द्वादशावर्त्त वंदनक देकर, हाथ जोड़कर खड़ा रहे अथवा उत्कटुक आसन में बैठे और आलोचना करे। यदि उसकी प्रतिसेवना अति विस्तृत हो और वह लम्बे समय तक उत्कटुक आसन में बैठने में असमर्थ हो अथवा वह अर्श रोग से आक्रान्त हो तो वह गुरु को निवेदन कर निषद्या पर, औपग्रहिक पादप्रोंछन पर अथवा यथायोग्य आसन पर बैठकर बद्धाञ्जलि होकर आलोचना करे। जैसे एक भोला बालक अपने माता-पिता के समक्ष ऋजुता से अच्छा-बुरा सब कुछ बता देता है वैसे ही आलोचक भी गुरु के समक्ष माया और अहंकार से शून्य होकर ऋजुभाव से अपनी सारी प्रतिसेवना छोटी या बड़ी स्पष्ट रूप से निवेदित कर दे।
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१. व्यभा. ५२१, ५२२, टी. प, १८-१९ : ठाणं ८१८, १०/७१, भ. २५/५५३ । २. व्यभा.६६५। ३. जो संघ से बाहर निकलने पर भी मुनि वेश को नहीं छोड़ते, वे सारूपिक कहलाते हैं। ४. जो दीक्षित होकर पुनः उत्प्रव्रजित हो गए, वे पच्छाकड़ (पश्चात्कृत) कहलाते हैं।
कोरण्टक उद्यान का उल्लेख इसलिए किया है क्योंकि वहां तीर्थकर मुनिसुव्रत स्वामी अनेक बार समवसृत हुए तथा अनेक साधु-साध्वियों को प्रायश्चित्त
दिया। वहां स्थित सम्यक्त्वी देवता ने यह अनेक बार देखा है अतः उसको आह्वान कर आलोचना का निर्देश है। ६. व्यभा. ६७५, ६ । ७. व्यभा.३१५। ८ व्यभा.४२६६।
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