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________________ व्यवहार भाप्य : एक अनुशीलन पूर्व, दसपूर्व एवं नवपूर्व का धारक, महामतिमानु, सागर के समान गंभीर, कल्प एवं प्रकल्प का धारक आचार्य आधारवान् या अवधारवान होता है। व्यवहारवान्-पांचों प्रकार के व्यवहारों का ज्ञाता तथा उनके आधार पर प्रायश्चित्त देने में कुशल। अपव्रीडक-आलोचक यदि लज्जावश अतिचारों का गोपन करता है तो अनेक प्रयोगों के द्वारा उसकी लज्जा का अपनयन करने वाला। प्रकुर्वी-सम्यक प्रायश्चित्त देकर आलोचक की विशोधि करने वाला। अपरिस्रावी-आलोचना करने वाले के आलोचित दोषों को दूसरों के सामने प्रकट नहीं करने वाला। निर्यापक-आलोचक को बड़े प्रायश्चित्त का निर्वहन कराने में कुशल। अपायदर्शी-आलोचक को इहलोक-परलोक के अपाय बताकर प्रायश्चित्त वहन करने के लिए प्रोत्साहित करने वाला। ठाणं में अंतिम तीन गुणों में क्रम-व्यत्यय है। वहां अपरिस्रावी, निर्यापक एवं अपायदर्शी-यह क्रम मिलता है। भगवती आराधना में विस्तार से इन गुणों का उल्लेख मिलता है। ठाणं के दसवें स्थान में दस गुणों का उल्लेख है। प्रियधर्मा एवं दृढ़धर्मा ये दो गुण अतिरिक्त मिलते हैं वहां इन गुणों से युक्त आचार्य या बहुश्रुत ही दूसरों को आलोचना या प्रायश्चित्त दे सकता है। भाष्यकार ने आलोचनार्ह साध्वी की योग्यता के निम्न मानक प्रस्तुत किए हैंगीतार्थ-सूत्र, अर्थ और तदुभय में निष्णात। कृतकरण- अनेक बार जिसने आलोचना दी हो। प्रौढ़-जो सूत्र और अर्थ में समर्थ एवं प्रायश्चित्त देने में समर्थ हो। परिणामक-अतिपरिणामक या अपरिणामक न हो। गंभीर-आलोचक की महान् प्रतिसेवना को सुनकर भी अप्रतिस्रावी हो। चिरदीक्षित-चिरकाल से संयमपर्याय का पालन करने वाली हो। वृद्ध-ज्ञान, संयमपर्याय तथा वय में वृद्ध हो।। इन गुणों से युक्त साध्वी आलोचनाई होती है। आलोचनार्ह श्रमण के लिए भी इन गुणों का होना आवश्यक है। आलोचक के गुण भाष्य में आलोचक के निम्न गुणों का उल्लेख मिलता है जाति सम्पन्न-जो जाति सम्पन्न होता है, वह प्रायः अकृत्य नहीं करता और यदि प्रमादवश कर लेता है तो उसका उचित प्रायश्चित्त कर शुद्ध हो जाता है। कुल सम्पन्न-जो कुल सम्पन्न होता है, वह प्राप्त प्रायश्चित्त का सम्यग निर्वहन करता है। विनय सम्पन्न-जो विनय संपन्न होता है, वह सम्यग आलोचना करता है। ज्ञान सम्पन्न-जो ज्ञान सम्पन्न होता है, वह श्रुत के अनुसार सम्यग् आलोचना करता है। वह जान लेता है कि अमुक श्रुत के आधार पर मुझे प्रायश्चित्त दिया गया है। अब मैं शुद्ध हो गया हूँ। दर्शन सम्पन्न-जो दर्शन सम्पन्न होता है, वह प्रायश्चित्त से होने वाली विशुद्धि पर श्रद्धा रखता है। चारित्र सम्पन्न-जो चारित्र सम्पन्न होता है वह जानता है कि बिना सम्यग् आलोचना किए विशोधि नहीं होती। १. भआ. ४३०॥ २. व्यभा. ५२०, भ. २५/५५४ : अट्ठहिँ ठाणेहिं संपन्ने अणगारे अरिहति आलोयणं पडिच्छित्तए, तं जहा-आयारवं, आधारवं, ववहारवं, उव्वीलए, पकुव्वए अपरिस्सावी, निज्जवए. अवायदंसी। ३. ठाणं च१८॥ ४. भआ. ४१-५२८। ५. ठाणं १०/७२। ६. व्यभा. २३७। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002531
Book TitleAgam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya
Original Sutra AuthorSanghdas Gani
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages860
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vyavahara
File Size14 MB
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