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________________ ७४] व्यवहार भाष्य • पांच प्रकार के आचार का सम्यग् पालन होता है। •विनय गुण का प्रवर्तन होता है। •आलोचना करने की परिपाटी का उद्दीपन होता है। •आत्मा को निःशल्य कर दिया जाता है। • संयम का अनुपालन होता है। • आर्जव आदि गुणों का उपवृंहण होता है। • मैं निःशल्य हो गया हूं-ऐसी परम तुष्टि होती है। • मैंने आलोचना नहीं की-इस परितप्ति का शमन हो जाता है। ग्रंथकार ने प्रकारान्तर से भी आलोचना की निष्पत्तियों का उल्लेख किया है लघुता : जैसे भारवाहक अपने भार को उतारकर स्वयं को हल्का अनुभव करता है, वैसे ही आलोचक अपने शल्य का उद्धरण कर लघु एवं हल्का हो जाता है। आह्लाद : उससे प्रमोदभाव उत्पन्न होता है। अतिचार ताप से तप्त व्यक्ति अपने अतिचार की तप्ति का अपनयन वैसे ही कर देता है जैसे मलयगिरि के पवन के संसर्ग से ताप का हरण होता है। स्वपरप्रसन्नता : आलोचना से व्यक्ति स्वयं को दोषों से मुक्त अनुभव करता है। यह देखकर दूसरे भी आलोचना के अभिमुख होते हैं और दोषों से मुक्त हो जाते हैं। आर्जवता : स्वयं के दोषों को दूसरों के समक्ष प्रकट करना आर्जव धर्म की प्रतिपालना है। विशोधि : अतिचार के पंक से मलिन चारित्र की शुद्धि प्रायश्चित्त के जल से होती है। दुष्करकरण : प्रतिसेवना करना दुष्करकरण नहीं है, उसकी आलोचना करना दुष्कर कार्य है क्योंकि इसे वही व्यक्ति कर सकता है, जो विशेष सामर्थ्य से सम्पन्न एवं मोक्षाभिलाषी है।' दिगम्बर परम्परा में प्रायश्चित्त करने के निम्न लाभ बताए गए हैं१. प्रमाद का निवारण। २. मानसिक प्रसन्नता। ३. निःशल्यता। ४. दोष की पुनरावृत्ति का निवारण। ५. मर्यादा-पालन। ६. संयम में दृढ़ता। ७. आराधना। अकलंक के अनुसार बहुत बड़ा तप भी आलोचना के बिना वैसे ही फल नहीं देता जैसे विरेचन से मलशुद्धि किए बिना खाई हुई औषधि। आलोचनाह जैन आगमों में व्यवहारी/आलोचनाप्रदाता के निम्न गुण प्रसिद्ध हैंआचारवान-पांचों प्रकार के आचार से सम्पन्न। अवधारवान्-आलोचक के द्वारा आलोच्यमान पूरे विषय को धारण करने में समर्थ। भगवती आराधना के अनुसार चौदह एवं नवपूर्व का धारक, महामतिमान्, सागर के समान गंभीर, कल्प एवं प्रकल्प का धारक आचार्य आधारवान् या १. व्यभा ३१७। २. तत्त्वार्थवार्तिक ६/२२ पृ. ६२०॥ ३. तत्त्वार्थवार्तिक ६/२२ पृ. ६२१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002531
Book TitleAgam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya
Original Sutra AuthorSanghdas Gani
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages860
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vyavahara
File Size14 MB
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