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________________ व्यवहार भाष्य : एक अनुशीलन [७३ करने के लिए भाष्यकार ने गंजे पनवाड़ी की कथा को प्रस्तुत किया है (देखें परिशिष्ट नं. ८ कथा सं. १८)। जो मुनि अशुभ परिणामों से निष्कारण ही मासिक प्रायश्चित्त जितनी प्रतिसेवना करता है, वह एक पूरे मास के प्रायश्चित्त से विशुद्ध होता है, क्योंकि वह दुष्ट अध्यवसाय के कारण प्रतिसेवना से प्रत्यावृत्त नहीं होता। जो मुनि पुष्ट आलंबन के आधार पर शुभ परिणामों से बहुमासिक प्रायश्चित्त जितनी प्रतिसेवना करता है, वह एक मास के प्रायश्चित्त से भी विशुद्ध हो जाता है क्योंकि ऐसा व्यक्ति दंड पाकर अपनी आत्मा में दुःखी होता है, क्लेश पाता है। दुष्ट अध्यवसाय से प्रतिसेवना कर जो मुनि आत्मनिंदा करता है, उसे भी बहुमासिक प्रायश्चित्त जितनी प्रतिसेवना में एक मास का ही दंड दिया जाता है। भाष्य में प्रायश्चित्त में अनेकान्त के और भी अनेक उदाहरण मिलते हैं। प्रायश्चित्त में अनेकान्त पद्धति के अनुसरण से शासन की अव्यवच्छित्ति और साधकों में शासन-प्रतिबद्धता के भाव वृद्धिंगत होते हैं। जैन आचार्य इस दृष्टि से बहुत सफल आलोचना प्रायश्चित्त के भेदों में आलोचना का प्रथम एवं महत्त्वपूर्ण स्थान है। गलती होने पर उसे सरलतापूर्वक गुरु के समक्ष प्रकट करना आलोचना है। दूसरों के समक्ष अपनी गलती प्रकट करने से व्यक्ति के आगे का रास्ता प्रशस्त हो जाता है। भाष्यकार ने आलोचना के बारे में सर्वांगीण विवेचन प्रस्तुत किया है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी आलोचना का जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान है। आलोचना से होने वाले विशेष परिणामों का उल्लेख उत्तराध्ययन सूत्र में मिलता है • आंतरिक शल्यों की चिकित्सा। • सरल मनोभाव की विशेष उपलब्धि। • तीव्रतर विकारों से दूर रहने की क्षमता और पूर्वसंचित विकार के संस्कारों का विलय। आलोचना के तीन प्रकार हैं१. विहारालोचना २. उपसंपदालोचना ३. अपराधालोचना इनके विस्तृत वर्णन के लिए देखें-व्यभा गा. २३३-३०४ । दिगम्बर साहित्य में आलोचना के दो भेद मिलते हैं - १. ओघ २. पदविभाग अर्थात सामान्य और विशेष। आलोचना के लाभ - जैन आगमों में अपनी स्खलना को गुरु के सामने स्पष्ट रूप से कहने का निर्देश स्थान-स्थान पर मिलता है। यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि व्यक्ति जब अपने मार्गदर्शक के समक्ष अपराध स्वीकार कर लेता है तब वह हल्का हो जाता है। भाष्यकार ने अनेक स्थलों पर आलोचना से होने वाले गुणों का उल्लेख किया है। वे दृष्टान्त द्वारा इस बात को समझाते हुए कहते हैं-चिकित्सा में निष्णात वैद्य भी स्वयं की चिकित्सा स्वयं नहीं करता। वह अन्य वैद्य के पास चिकित्सा करवाता है। इसी प्रकार आचार्य भी अन्य आचार्य के पास विशोधि के लिए जाते हैं और बालक की भांति ऋजुभावों से आलोचना करते हैं। उस समय वे माया और मद से शून्य हो जाते हैं। आलोचना करने के निम्न गुण हैं १. व्यभा. ३४०॥ २. उ. २६।६। ३. व्यभा. ४२६६-६६। ४. व्यभा ४३०१, भआ ४११॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002531
Book TitleAgam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya
Original Sutra AuthorSanghdas Gani
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages860
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vyavahara
File Size14 MB
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