________________
७२ ]
व्यवहार भाष्य
व्याध एवं गाय के दृष्टान्त प्रस्तुत किए हैं। (देखें-परिशिष्ट ८ कथा सं. २८-३३) इन दृष्टान्तों से स्पष्ट है कि सापेक्ष एवं निरपेक्ष व्यवहार से मनुष्य ही नहीं, पशु भी प्रभावित होते हैं।
समान अपराध होने पर भी गीतार्थ-अगीतार्थ, यतना-अयतना, संहनन-संहननहीनता आदि के आधार पर कम-ज्यादा प्रायश्चित्त भी दिया जा सकता है। एक ही गलती में प्रायश्चित्तदान की विविधता का हेतु पक्षपात नहीं, अपितु विवेक है। भाष्यकार ने प्रायश्चित्त की विभिन्नता एवं विशोधि के प्रसंग में रजक और जलघट का दृष्टान्त प्रस्तुत किया है। जैसे रजक वस्त्रों के मल को जलघट से मलरहित करता है वैसे ही आचार्य प्रायश्चित्त देकर दोषों का अपनयन करते हैं। मलापनयन में मल के अनुसार जल का प्रयोग होता है। इस प्रसंग में निम्न चतुभंगी द्रष्टव्य है
एक वस्त्र एक जलकुंभ से स्वच्छ होता है। एक वस्त्र अनेक जलकुंभों से स्वच्छ होता है। अनेक वस्त्र एक जलकुंभ से स्वच्छ होते हैं। अनेक वस्त्र अनेक जलकुंभों से स्वच्छ होते हैं।
घर पर जलकुंभों से जो वस्त्र स्वच्छ नहीं होता, उसे नदी, तालाब आदि पर काष्ठपट्टिका से पीट-पीटकर स्वच्छ किया जाता है। उसी प्रकार पाण्मासिक प्रायश्चित्त से जो विशोधि नहीं होती उसकी विशोधि मूल, छेद, अनवस्थाप्य तथा पारांचित से होती है। प्रतिसेवक की राग-द्वेष की हानि-वृद्धि के आधार पर मासिक आदि तपःवृद्धि तथा छेद आदि प्रायश्चित्तों का आलम्बन लिया जाता है। इस संदर्भ में भाष्यकार ने वातादी रोग एवं घृतकुंभ तथा औषध आदि की चतुभंगी भी प्रस्तुत की है।
प्रश्न उपस्थित होता है कि राग-द्वेष की वृद्धि से जैसे प्रायश्चित्त बढ़ता है वैसे ही राग-द्वेष की हानि से क्या प्रायश्चित्त कम भी होता है? समाधान प्रस्तुत करते हुए ग्रन्थकार कहते हैं कि मंद अनुभाव से अनेकविध अपराध हो जाने पर भी उनकी विशोधि अल्प तप से हो जाती है। दशम प्रायश्चित्त जितना अपराध सेवन कर मुनि दसवें, नौवें यावत् निर्विकृतिक प्रायश्चित्त ग्रहण कर भी विशुद्ध हो जाता है। उसी प्रकार अन्यान्य अपराध पर भी अल्प-अल्पतम प्रायश्चित्तों से विशुद्ध हो जाता है।
प्रतिसेवना की भिन्नता होने पर भी प्रतिसेवक (गीतार्थ, अगीताथ) तथा अध्यवसाय के भेद से समान प्रायश्चित्त देने पर भी तुल्य शोधि हो सकती है। निम्न उद्धरण प्रायश्चित्तदान में अनेकान्त एवं सापेक्षता के श्रेष्ठ उदाहरण कहे जा सकते हैं
एक व्यक्ति ने तीव्र अध्यवसाय से मासिक प्रायश्चित्त जितनी प्रतिसेवना की, उसको एक मास का प्रायश्चित दिया जा सकता है।
दूसरे ने मंद अध्यवसाय से दो मास प्रायश्चित्त जितनी प्रतिसेवना की, उसको प्रत्येक मास के पन्द्रह दिनों के अनुपात से एक मास का प्रायश्चित्त दिया जा सकता है।
तीसरे ने मंदतम अध्यवसाय से तीन मास प्रायश्चित्त जितनी प्रतिसेवना की, उसको प्रत्येक मास के दस-दस दिनों के अनुपात से एक मास का प्रायश्चित्त दिया जा सकता है।
चौथे ने अतिमंदतम अध्यवसाय से चार मास प्रायश्चित्त जितनी प्रतिसेवना की, उसको प्रत्येक मास के साढ़े सात दिनों के अनुपात से एक मास का प्रायश्चित्त दिया जा सकता है।
इस बात की पुष्टि में भाष्यकार ने 'पांच-वणिक एवं पन्द्रह गधे' का दृष्टान्त प्रस्तुत किया है। देखे परिशिष्ट नं. ८ कथा सं. १५।
कोई व्यक्ति अनेक मासिक प्रायश्चित्त स्थानों का सेवन कर एक बार में ही सभी की आलोचना कर लेता है और आगे प्रतिसेवना न करने का मानस बना लेता है, वह मासिक प्रायश्चित्त से मुक्त हो सकता है। किन्तु जो मुनि बार-बार प्रतिसेवना करके आलोचना करता है उसे उसी प्रतिसेवना के लिए मूल और छेद का प्रायश्चित्त भी प्राप्त हो सकता है। इस बात को स्पष्ट १. व्यभा ५०, ५८१ टी. प. ३६-४१, १०४४-४६ । २. व्यभा ४०२६; टी. प. ३०, तुल्येऽप्यपराधे दारुणानामन्यत् प्रायश्चित्तमन्यत् भद्रकाणाम् । ३. व्यभा ५०५-५०८। 6. व्यभा ४४०-४२। ५. व्यभा ३३१.३३२, टी. प. ४६,५०॥ ६. व्यभा.३३६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org