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व्यवहार भाष्य
६०५. अकतकरणा वि' दुविधा, अणभिगता अभिगता य बोधव्वा ।
जं सेवेतिरे अभिगते, अणभिगते अत्थिरे इच्छा ॥ ६०६. अहवा साविक्खितरे, निरवेक्खा नियमसा उ कयकरणा ।
इतरे कताऽकता वा, थिराऽथिरा नवरि गीयत्था ॥ ६०७. छट्ठट्ठमादिएहिं, कयकरणा ते उ उभयपरियाए ।
अभिगतकयकरणत्तं, जोगायतगारिहा केई ॥ ६०८. सव्वेसिं अविसिट्ठा, आवत्ती तेण पढमता मूलं ।
सावेक्खे गुरुमूलं', 'कताकते होति छेदो उ१० ॥ ६०९. पढमस्स होति मूलं, बितिए मूलं च छेद छग्गुरुगा ।
जतणाय होति सुद्धो, अजयण गुरुगा तिविधभेदो २ ॥ ६१०. सावेक्खो त्ति च काउं, गुरुस्स कडजोगिणो'३ भवे छेदो ।
अकयकरणम्मि छग्गुरु, इति ‘अड्डोकंतिए नेयं ४ ॥ ६११. अकयकरणा उ१५ गीता, जे य 'अगीता य अकय१६ अथिरा य।
तेसावत्ति अणंतर, बहुयंतरियं व झोसो वा७ ॥ ६१२. आयरियादी तिविधो, सावेक्खाणं तु किं कतो भेदो ।
एतेसिं पच्छित्तं, दाणं चाणं अतो तिविधो८ ॥ कारणमकारणं वा, जतणाऽजतण 'व नत्थिऽगीयत्थे १९ । एतेण कारणेणं, आयरियादी भवे तिविधा० ॥
६१३.
य (ब)। २. सेवति (अ, स)।
निभा ६६५०,व्यभा १६०। गाथा ६०४ से ६१८ तक की गाथाओं का पुनरावर्तन हुआ है। ये व्यभा १५९-१८१ तक की गाथाएं हैं। बीच में कुछ गाथाएं छूट भी गई हैं। तथा कुछ गाथाओं में क्रमव्यत्यय भी हुआ है। टीकाकार स्वयं इस बात का उल्लेख करते हुए कहते हैं -एतत्प्रभृतिका गाथा यद्यपि प्रागपि व्याख्याता तथापि मूलटीकाकारेणापि भूयो पि व्याख्याता इति तन्मार्गानुसारत: स्थानाशून्यार्थं वयमपि लेशेन व्याख्याम: (मवृभाग ३ प ४८) इनमें कुछ गाथाएं टीका में व्याख्यात नहीं हैं किन्तु हमने इन्हें
भाष्यगाथा के क्रम में रखा है। ४. मसो (स)।
निभा ६६५१, व्यभा १६१ । ६. ०परियारा (निभा ६६५२) । ७. जोगा य तवारिहा (निभा), तधारिधा (अ.स)। ८. कोइ (स), व्यभा १६२ ।
९. गुरौ आचार्य गाथायामत्र विभक्तिलोप: प्राकृतत्वात् (म)। १०. कतमकते छेदमादी तु (निभा ६६५५), व्यभा १६६ । ११. अकरण (स)। १२. निभा ६६५६, यह गाथा टीका में नहीं है किन्तु हस्तप्रतियों में
प्राप्त है ।प्रथम भाग में प्राप्त गाथाओं के अनुसार ६०९-६१०
की गाथा में क्रम व्यत्यय है। १३. कय० (अ)। १४. अड्डोक्कंतीए णेयव्वं (निभा ६६५७), एवड्डोकंतीए नेयं (आ),
व्यभा १६७। १५. य (निभा, स)। १६. अगीयाऽकता य (निभा ६६५८)। १७. व्यभा १६८। १८. यह गाथा टीका में नहीं है किन्तु हस्तप्रतियों में प्राप्त है । प्रथम
भाग में भी इस क्रम में यह गाथा मिलती है, व्यभा १६९ । १९. य तत्थ गीयत्थे (निभा ६६५३)। २०. व्यभा १७०,निभा में ६६५३ एवं ६६५४ ये दोनों गाथाएं व्यभा
(६०७) गाथा के बाद हैं।
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