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________________ प्रथम उद्देशक [ ६१ ६१७. ६१४. कज्जाऽकज्ज' जताऽजत, अविजाणतो अगीतों जं सेवे । सो हो। तस्स दप्पो, गीते दप्पाजते दोसारे ॥ ६१५. दोसविभवाणुरूवो, लोए दंडो वि किमुत उत्तरिए । तित्थुच्छेदो इहरा, निराणुकंपा न “वि सोही'३ ॥ ६१६. तिविधे तेगिच्छम्मी, उज्जुग-वाउलण-साहणा चेव । पण्णवणमणिच्छंते, दिलुतो भंडिपोतेहिं ॥ सुद्धालंभि' अगीते, अजयणकरणकधणे भवे गुरुगा । कुज्जा व अतिपसंगं, असेवमाणे व असमाधी ॥ ६१८. जा एगदेसे अदढा उ भंडी, सीलप्पए सा उ करेति कज्जं । जा दुब्बला संठविता वि संती, न तं तु सीलेंति विसण्णदारु ॥ जो एगदेसे अदढो उ पोतो, सीलप्पए सो उ° करेति कज्जं । जो दुब्बलो संठवितो वि संतो, न तं तु सीलंति विसण्णदारु'२ ॥ निवितिए१३ पुरिमड्ढे, एक्कासण अंबिले 'चउत्थे य१४ । 'पण दस पण्णरसे या, वीसा तत्तो य पणुवीसा'१५ ॥ ६२१. मासो लहुगो गुरुगो, चउरो लहुगा य होति गुरुगा य । छम्मासा लहु-गुरुगा, छेदो मूलं तध दुगं च६ ॥ एसेव गमो नियमा, मास - दुमासादिगा तु संजोगा । उग्घातमणुग्घाए, 'मीसम्मि य सातिरेगे य१७ ॥ ६२३. एसेव गमो नियमा, समणीणं दुगविवज्जितो होति । आयरियादीण जहा, पवित्तिणिमादीण वि तधेव८ ॥ ६१९. कज्जमकज्जे (स), कज्जमकज्ज (अ, निभा ६६५४)। व्यभा १७१, ६१५-६१६ ये दोनों गाथाएं टीका की मुद्रित पुस्तक में नहीं हैं। किन्तु हस्तप्रतियों में प्राप्त है । व्यवहारभाष्य के प्रथम भाग (१७१-७२) में भी इस क्रम में ये दोनों गाथाएं मिलती हैं। य विसोही (अ), निभा ६६५९, इस गाथा के बाद पहले भाग में पांच गाथाएं (१७३-७७) और मिलती हैं। उनका टीका एवं हस्तप्रति दोनों में कोई उल्लेख नहीं है। भंडिवोदेहिं (स), निभा ६६६१, व्यभा १७८ । ० लंभे (अ, निभा ६६६०)। यह गाथा टीका में नहीं है किन्तु हस्तप्रतियों में प्राप्त है । व्यभा में भी १७९ के क्रमांक में यह गाथा मिलती है। ण दढा (स)। व्यभा १८०। ण दढो (स)। १०. य (ब)। ११. सीलवितो (अ.स)। १२. व्यभा १८१ । १३. निव्वितीय (अ.स), निविगितिय (निभा)। १४. अभत्तट्टे (निभा)। १५. गाथा का उत्तरार्ध निभा (६६६२) में इस प्रकार है पण दस पण्णर वीसा, तत्तो य भवे पणुव्वीसा (निभा, व्यभा १६३), (६१९-६२०) ये दोनों गाथा टीका की मुद्रित पुस्तक में नहीं है किन्तु हस्तप्रतियों में प्राप्त हैं। १६. निभा ६६६३, व्यभा १६४ । १७. मीसं मीसाइरेगे य (निभा ६६६४)। यह गाथा टीका की मुद्रित पुस्तक में नहीं है किन्तु हस्तप्रतियों में मिलती है। निशीथ भाष्य में भी इस क्रम में यह गाथा मिलती है। १८. निभा ६६६५। ९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002531
Book TitleAgam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya
Original Sutra AuthorSanghdas Gani
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages860
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vyavahara
File Size14 MB
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