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________________ व्यवहार भाष्य : एक अनुशीलन [ ३ नौवें पूर्व की तीसरी आचार वस्तु का और उत्कृष्टतः कुछ कम दस पूर्वो का ज्ञाता होना चाहिए। जो मुनि संहनन और पर्याय के साथ सूत्र और अर्थ में बलीयान् होता है, वह इन प्रतिमाओं को स्वीकार कर सकता है। प्रतिमाप्रतिपन्न मुनि पांच व्यवहारों का ज्ञाता होना आवश्यक है। प्रतिमाओं को स्वीकार करने वाला व्युत्सृष्टकाय एवं त्यक्तदेह होता है। व्युत्सृष्टकाय का अर्थ है-रोगातंक उत्पन्न होने पर भी शरीर का प्रतिकर्म नहीं करना। त्यक्तदेह का अर्थ है-किसी के द्वारा बांधने, मारने, पीटने एवं रोधन करने पर भी उसका निवारण नहीं करना। प्रतिमाप्रतिपन्न मुनि दैविक, मानुषिक, तिर्यञ्च सम्बंधी-तीनो परीषहों को समभावपूर्वक सहन करता प्रतिमाप्रतिपन्न मुनि अज्ञातोञ्छ ग्रहण करता है तथा वह भी एक ही व्यक्ति द्वारा दिया हुआ। यदि दो-तीन व्यक्ति भिक्षा दें तो वह ग्रहण नहीं करता। वह श्रमणों, भिक्षाचरों तथा द्विपद-चतुष्पदों को लांघकर भिक्षा के लिए नहीं जाता। वे जब अपना प्रयोजन सिद्ध कर चले जाते हैं तब प्रतिमाप्रतिपन्न मुनि भिक्षा के लिए निकलते हैं। जिस क्षेत्र में तीन भिक्षाकाल हों, वहां वह मुनि श्रमणों से पूर्व अथवा श्रमणों के पश्चात् भिक्षा के लिए निकलते हैं। जहां दो भिक्षाकाल हों वहां श्रमणों के चले जाने पर भिक्षा करते हैं। प्रतिमाप्रतिपन्न मुनि गर्भवती स्त्रियों तथा जिनका शिशु अभी स्तनपान कर रहा हो, उससे भिक्षा नहीं लेते। ऐतिहासिक तथ्य इतिहास अतीत को वर्तमान में प्रस्तुत करता है। इससे प्राचीन और अर्वाचीन परम्परा को समझने का अवसर भी प्राप्त होता है। इतिहास से यह अवबोध सुस्पष्ट हो जाता है कि द्रव्य, क्षेत्र और काल के आधार पर कब-कैसे परिवर्तन होते हैं? ऐतिहासिक तथ्य वर्तमान के लिए तो प्रेरक होते ही हैं साथ ही भविष्य के लिए भी नयी प्रेरणा देते हैं। प्रस्तुत भाष्य में अनेक ऐतिहासिक तथ्यों की प्रस्तुति हुई है। ग्रंथ में वर्णित ऐतिहासिक तथ्य धर्म, राजनीति, समाज आदि से सम्बन्धित हैं। इन तथ्यों के आलोक में कुछ ऐतिहासिक तथ्यों का केवल संकेतमात्र किया जा रहा है .प्रथम तीर्थंकर के समय में उत्कृष्ट तप एक वर्ष का, मध्य के बावीस तीर्थंकरों के समय में उत्कृष्ट आठ मास का तथा अंतिम तीर्थकर के समय में उत्कृष्ट छह मास का तप होता है (गा. १४४)। • चतुर्दशपूर्वी के साथ प्रथम संहनन का विच्छेद हो गया (गा. ५५६)। • चाणक्य द्वारा नंदवंश का समूल नाश हुआ (गा. ७१६)। कोंकण देश के स्थानक नगर में सोने की खान थी। (गा. ६१५ टी. प. १२७)। • भरुकच्छ में कोरंटक उद्यान में भगवान् सुव्रतस्वामी अनेक बार समवसृत हुए तथा अनेक साधुओं को प्रायश्चित्त दिया (गा. ६७५)। • शातवाहन राजा की उन्मत्तता का वर्णन (गा. ११२६-३१)। आचार्य वज्र एवं रानी पद्मावती की घटना (गा. १४१४, १४१५)। • तगरा नगरी के आठ व्यवहारी एवं आठ अव्यवहारी शिष्यों का वर्णन; व्यवहारी शिष्यों का नामोल्लेख (गा. १६६४)। • मथुरा नगरी में क्षपक की घटना, जिसने देवता की सहायता से स्तूप पर श्वेत पताका फहरवा कर जैन धर्म की प्रभावना की (गा. २३३०, २३३१)। • आर्यरक्षित अंतिम आगम व्यवहारी थे। उनके बाद साध्वियों को छेदसूत्र की वाचना बंद हो गई (गा. २३६५)। • कपिल ब्राह्मण, महावीर एवं गौतम की घटना (गा. २६३८)। • राजा शातवाहन और पटरानी पृथिवी की घटना (गा. २६४५-४७)। • लोहार्य मुनि द्वारा भगवान् महावीर के लिए भिक्षा लाना (गा. २६७१) । १. व्यभा.३८३६।। २. व्यभा.३८३७-४२। ३. व्यभा.३८५२-६२। ४. व्यभा.३८६३। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002531
Book TitleAgam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya
Original Sutra AuthorSanghdas Gani
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages860
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vyavahara
File Size14 MB
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