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व्यवहार भाष्य
• प्रथम सप्ताह में गर्म पानी के साथ चावल । • दूसरे सप्ताह में यूप-मांड। • तीसरे सप्ताह में तीन भाग उष्ण पानी तथा थोड़े मधुर दही के साथ चावल। • चतुर्थ संप्ताह में दो भाग उष्णोदक तथा दो भाग मधुर दही के साथ चावल । • पांचवें सप्ताह में अर्द्ध उष्णोदक और अर्द्ध मधुर दही के साथ चावल। • छठे सप्ताह में विभाग उष्णोदक और दो भाग मधुर दही के साथ चावल। • सातवें सप्ताह में मधुर दही में थोड़ा-सा उष्णोदक मिलाकर उसके साथ चावल। • आठवें सप्ताह में मधुर दही अथवा अन्य जूषों के साथ चावल । सात सप्ताह तक रोग के प्रतिकूल न हो, वैसा भोजन दही के साथ किया जाता है। प्रतिमा से होने वाले तीन लाभों की चर्चा भाष्यकार ने की है• सिद्धि की प्राप्ति। • महर्द्धिक देवत्व की प्राप्ति। • रोगमुक्ति एवं शरीर का कनकवर्ण होना।
इस प्रतिमा को बलशाली व्यक्ति ही ग्रहण कर सकता है। प्रथम तीन संहनन वाले व्यक्ति इस प्रतिमा के धारक होते हैं। अंतिम तीन संहनन वाले मुनि यदि इस प्रतिमा को धारण करते हैं तो उनकी धृति वज्रकुड्य के समान होनी चाहिए। यवमध्यचंद्रप्रतिमा
यव आदि और अंत में तनु एवं मध्य में स्थूल होता है। वज्र आदि और अंत में स्थूल और मध्य में तनुक होता है। इन आकारों के माध्यम से चन्द्रमा को प्रतीक बनाकर तपस्या का निर्देश है इसलिए ये यवमध्यचंद्रप्रतिमा एवं वज्रमध्यचंद्रप्रतिमा कहलाती हैं।
यवमध्यचन्द्रप्रतिमा मास के शुल्क पक्ष से प्रारम्भ की जाती है। जैसे शुक्लपक्ष में चन्द्रमा की कला प्रतिपदा से एक-एक बढ़ती जाती है और पूर्णिमा को पन्द्रह कलाएं पूर्ण हो जाती हैं वैसे ही यवमध्यचन्द्रप्रतिमाप्रतिपन्न मुनि प्रतिपदा को एक दत्ती ग्रहण करता है और प्रतिदिन एक-एक दत्ती बढ़ाता हुआ पूर्णिमा को पन्द्रह दत्तियां ग्रहण करता है । कृष्णपक्ष की प्रतिपदा को चंद्रमा की चौदह कलाएं दृग्गोचर होती हैं वैसे ही प्रतिमाप्रतिपन्न मुनि कृष्णपक्ष की प्रतिपदा को चौदह दत्तियां लेता है और प्रतिदिन एक-एक दत्ती कम करते-करते अमावस्या को उपवास करता है। यवमध्यचंद्रप्रतिमा मास के आदि में तनु, मध्य में पूर्ण तथा अंत में पुनः तनु हो जाती है। इस प्रकार यह आदि-अंत में तनुक एवं मध्य में स्थूल होती है। वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमा
वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमा मास के कृष्णपक्ष में प्रारम्भ की जाती है। प्रतिमाप्रतिपन्न मुनि कृष्णपक्ष की प्रतिपदा को चौदह दत्तियां ग्रहण करता है और प्रतिदिन एक-एक दत्ती घटाता हुआ अमावस्या को उपवास करता है। शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को एक दत्ती से प्रारम्भ कर प्रतिदिन एक-एक दत्ती बढ़ाता जाता है और पूर्णिमा को पन्द्रह दत्तियां ग्रहण करता है। यह प्रतिमा मास के आदि-अंत में पृथुल और मध्य में तनुक होती है। वज्र का यही आकार होता है। प्रतिमा प्रतिपन्न की योग्यता
वज्रऋषभनाराच, नाराच एवं अर्द्धनाराच-इन तीनों में से एक संहनन वाला मुनि इन प्रतिमाओं को स्वीकार कर सकता है। उसका जन्म पर्याय जघन्यतः उनतीस वर्ष, उत्कृष्टतः कुछ कम पूर्व कोटि वर्ष का होना चाहिए। सूत्र और अर्थ की दृष्टि से वह
१. व्यभा ३८०२। २. व्यभा ३८०६ टी. प. १७! ३. व्यभा ३८३३। ४. व्यभा ३३४ ५. व्यभा ३८३३, ३३४ टी. प. २।
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