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व्यवहार भाष्य : एक अनुशीलन
भावधारा और आराधना
जैन दर्शन में चारित्राराधना भावों की विशद्धि पर आधारित है। अप्रमत्त अवस्था में यदि जीवहिंसा हो जाए तो द्रव्यहिंसा ही है। प्रमत्त अवस्था में जीवहिंसा न होने पर भी हिंसा का दोष लगता है। आलोचना के संदर्भ में निम्न प्रसंग पठनीय है-कोई व्यक्ति मैं आलोचना करूंगा इस चिन्तन से आलोचनाह के पास प्रस्थित हुआ लेकिन यदि बीच में ही वह कालगत हो गया अथवा आलोचनाई कालगत हो गया अथवा आलोचनाह के पास पहुंचकर रोग से आक्रान्त होकर वह बोलने में समर्थ नहीं रहा अथवा आलोचनार्ह रोगाक्रान्त हो गया तो वह आलोचना न करने पर भी आराधक है क्योंकि उसकी परिणामधारा विशुद्ध है, वह आलोचना करना चाहता है।
प्रतिमाएं जैन आगमों में साधना की अनेक पद्धतियों का वर्णन है, उनमें प्रतिमा का विशिष्ट स्थान है। प्रतिमा का अर्थ है-साधना का विशेष संकल्प या अभिग्रह। दूसरे शब्दों में साधना की विशेष पद्धति को प्रतिमा कहा जाता है। जैन परम्परा में बहुविध प्रतिमाओं का वर्णन है। साधु एवं श्रावकों के लिए भी अलग-अलग प्रतिमाओं का उल्लेख है। भगवान् महावीर ने साधनाकाल में अनेक प्रतिमाओं का अभ्यास किया था। ठाणं में अनेक प्रतिमाओं का वर्णन है। प्रस्तुत ग्रंथ में तीन प्रतिमाओं का विस्तार से वर्णन है
१. मोकप्रतिमा। २. यवमध्यचन्द्रप्रतिमा ३. वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमा।
मोक प्रतिमा
मोक का अर्थ है-प्रस्रवण। यह प्रस्रवण पर आधारित है अतः इसका नाम मोकप्रतिमा हो गया। निरुक्त के आधार पर इसका अर्थ करते हुए ग्रंथकार कहते हैं जो साधु को पापकर्मों से मुक्त करती है, वह मोकप्रतिमा है। भाष्यकार ने द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव से इस प्रतिमा की व्याख्या की है।
द्रव्यतः-प्रस्रवण पीना। क्षेत्रतः-गांव आदि के बाहर रहना।
कालतः-प्रथम निदाघकाल में अथवा अंतिम निदाघकाल में। अभयदेव सूरि ने कालतः शरद् एवं निदाघ-दोनों कालों का उल्लेख किया है।
भावतः-स्वाभाविक प्रस्रवण ग्रहण करना। प्रतिमाप्रतिपन्न मुनि कृमियुक्त या शुक्रयुक्त प्रस्रवण नहीं पीता। मधुमेह के रोगी का प्रस्रवण भी दोषयुक्त होने के कारण नहीं पीया जाता। स्थानांग वृत्ति में भावतः की व्याख्या देव आदि के उपसर्ग को सहन करना किया है।
इस प्रतिमा में सात दिन का उपवास किया जाता है। उपवास-काल में प्रस्रवण-पान का प्रयोग किया जाता है। प्रतिमा पालन के बाद आहार-ग्रहण की विधि इस प्रकार है१. व्यभा-४०५२, ४०५३: भआ. ४०५-४०८ । २. स्थाटी.प. १८४ : प्रतिमा-प्रतिज्ञा अभिग्रहः । ३. विस्तार के लिए देखें दशाश्रुतस्कंध की छठी एवं सातवीं दशा। ४. ठाणं २/२४३-४८ ५. व्यभा. ३७६० : साधु मोयंति पावकम्मेहि, एएण मोयपडिमा । ६. व्यभा.३८०६) ७. स्थाटी. प. ६१ : कालतः शरदि निदाघे वा प्रतिपद्यते। ८ व्यभा.३७६५, ३७६६ । ६ व्यभा.३७६७ १०. स्थाटी.प. ६१ : भावतस्तु दिव्याधुपसर्गसहनमिति । ११. व्यभा.३८०३-३८०६ ।
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