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परिशिष्ट
उसने एक राज-सेवक से बातचीत की और उसे वह अपने घर ले आई। वह एक विशेष प्रयोजन से उस राज-सेवक के प्रति अत्यधिक अनुरक्त हुई और उसको प्रसन्न रखने का प्रयत्न करने लगी। राजपुरुष ने गणिका के सौंदर्य की बात राजा से कही। एक बार राजा अपने सैन्यदल के साथ कहीं जा रहा था। उसने गणिका को अत्यंत रूपवती जानकर अपने कटक के साथ ले लिया। इधर वह राज-सेवक अपनी प्रिया गणिका के वियोग से पीड़ित और अत्यधिक दुःखी होकर स्थविरों के पास प्रव्रजित हो गया।
कालांतर में वह गणिका राजा के साथ लौट आई। उसने उस राज-सेवक को नहीं देखा। वह उसकी खोज करने लगी। तब उसने सुना कि वह राज-सेवक स्थविरों के पास दीक्षित हो गया है। वह उन स्थविरों का अता-पता जानकर वहां पहुंच गई। स्थविरों से वह बोली-जो राज-सेवक आपके पास दीक्षित हुआ है, उसने मेरे धन का प्रचुर उपभोग किया है। यदि आप मुझे वह धन दे देते हैं, दिलवा देते हैं, तो मैं इसे आपके पास छोड़ सकती हूं, अन्यथा इसे मैं जबरन अपने साथ ले जाऊंगी।
ऐसी स्थिति में स्थविरों को, तथा उस मुनि को जो करना है, वह इस प्रकार है-- . स्थविर मुनि गुटिका के प्रयोग से उस व्यक्ति का वर्ण बदल दे या स्वरों में परिवर्तन कर दे जिससे कि वह
पहचाना न जा सके। अथवा उसे अन्यत्र कहीं भेज दे । अथवा ऐसी औषधियों का प्रयोग करें जिससे कि उस व्यक्ति को अत्यधिक विरेचन हो और वह ग्लान की भांति परिलक्षित हो। वह कष्ट से जीवन-यापन करता है यह सोचकर, गणिका उसे छोड़ देगी। अथवा वह मुनि स्वयं मृतक की भांति उच्छ्वास-निःश्वास को रोककर, सूक्ष्म श्वास लेते हुए रहे। उसे मृत जानकर गणिका छोड़ देगी। अथवा वह मुनि यदि ध्यान-साधना में प्रवीण हो, तो ध्यानावस्था में बैठकर शरीर और श्वास को निश्चल कर
दें। वह इस प्रकार अडोल रहे, जिससे देखने वाले को मृत-सा प्रतीत हो। • अथवा गणिका के मित्रों, स्वजनों को सारी बात बताए और गणिका पर प्रभाव डालने का प्रयल करे। भाष्यकार ने अन्यान्य प्रयत्न भी उल्लिखित किए हैं।
(गा. ११७५-११७६ टी. प. ४६, ४७) ६२. दासत्व से मुक्ति
मथुरा नगरी में एक वणिक् अपने छोटे पुत्र को अपने मित्र के घर सौंपकर प्रव्रजित हो गया। वह मित्र कालगत हो गया। उस समय दुर्भिक्ष हुआ और मित्र के सभी पुत्र उस बालक की अवज्ञा करने लगे। वह बालक इधर-उधर घूमने लगा। इस प्रकार आवारा घूमते हुए वह एक सेठ के घर दास के रूप में रह गया। विहरण करते-करते उसके मुनि-पिता उसी नगर में आए। उन्होंने अपने पुत्र के विषय में सब कुछ जान लिया। भाष्यकार ने उस पुत्र को दासत्व से मुक्त कराने के अनेक उपाय निर्दिष्ट किए हैं।
(गा. ११८०-११६० टी. प. ४७, ४६) ६३. मिथ्या आरोप
एक तरुणी अनेक स्वजनों के साथ प्रव्रजित हुई। एक बार उसने आचार्य से कामभोग की याचना की। आचार्य ने उसे स्वीकार नहीं किया। तरुणी साध्वी अपने मन में आचार्य के प्रति प्रद्वेषभाव रखने लगी। उसने अपने प्रव्रजित स्वजनों से कहा-आचार्य मुझे बार-बार कष्ट देते हैं। उन स्वजनों के मन में भी आचार्य के प्रति प्रद्वेष जाग गया। वें बोले-ये आचार्य पारांचित प्रायश्चित्त के योग्य हैं। इनको गृहस्थ वेश दे देना चाहिए। आचार्य को यह ज्ञात हुआ। उन्होंने दूसरे गण के गीतार्थ मुनियों को अपना सारा वृत्तांत बताया। उन स्थविरों ने यह जान लिया कि आचार्य पर मिथ्या आरोप आया है। वे उन प्रति गों की भावना को जान गए। समागत आचार्य को क्षेत्र के बाहर रखकर, स्वयं उनकी सार-संभाल
हा।
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