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परिशिष्ट-८
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के लिए वहीं उनके पास ठहर गए। उन्होंने सोचा, प्रद्विष्ट मुनियों का अभ्याख्यान सफल न हो, इसलिए प्रच्छन्नरूप से समागत आचार्य को उपस्थापना देकर अपने ही गण में रख लिया।
(गा. १२३०, १२३१ टी. प. ५७) ६४. आचार्य को प्रायश्चित्त
एक आचार्य का शिष्य परिवार बहुत बृहद् था। एक बार आचार्य ने प्रतिसेवना की, दोष का आचरण किया। उनको गृहस्थ वेष करने का प्रायश्चित्त आया। वे अन्य गण में प्रायश्चित्त के लिए गए। उस गण के आचार्य ने उन्हें गृहीभूत मानकर उनका पराभव किया। तब उस प्रायश्चित्तार्ह आचार्य के शिष्यों ने अन्य गण के आचार्य से कहा-आप हमारे गुरु को गृहीभूत न करें। यदि हमारे गुरु की इस प्रकार भर्त्सना की जाएगी तो हम सब गण छोड़कर अन्यत्र चले जाएंगे। तब उस गण के आचार्य ने सोचा, इन शिष्यों के मन में प्रव्रज्या के प्रति अविश्वास न हो, यह सोचकर आचार्य को गृहीभूत का प्रायश्चित्त न देकर अन्य प्रकार से उनकी उपस्थापना की।
(गा. १२३२, १२३३ टी. प. ५७) ६५. दो गण : दो आचार्य
दो गण थे। दोनों गणों के साधु अगीतार्थ थे। एक बार दोनों गणों के गुरुओं को उपस्थापनार्ह प्रायश्चित्त प्राप्त हुआ। उनमें एक को अगृहीभूत उपस्थापनाह प्रायश्चित्त तथा दूसरे को गृहीभूत उपस्थापनार्ह प्रायश्चित्त आया। तब दोनों गणों के मुनियों ने यह विमर्श किया कि एक गुरु दूसरे गण में चले जाएं और दूसरे गुरु उसी गण में रह जाएं। दोनों गणों के अगीतार्थ मुनि अपने-अपने आचार्य को प्रायश्चित्त वहन करते देख, परस्पर कहते-तुम हमारे गुरु को क्या प्रायश्चित्त दोगे ? उनको गृहीभूत करोगे या अगृहीभूत ? तब एक गण वाले स्थविरों ने कहा-जिनको गृहीभूत उपस्थापना प्राप्त है उसको गृहीभूत करेंगे। तब दूसरे गण के स्थविर बोले-तब हम भी तुम्हारे आचार्य को गृहीभूत करेंगे। तब परस्पर विवाद हुआ और यह निर्णय हुआ कि दोनों को अगृहीभूत ही रखना है। तब दोनों आचार्य बोले-हमारा दोष अगृहीभूत रहने से शुद्ध नहीं होगा। इसलिए हमको गृहीभूत ही करना होगा। यद्यपि यह बात एक गण को मान्य नहीं थी, फिर दोनों गणों के सामंजस्य के लिए दोनों आचार्यों को अगृहीभूत उपस्थापना ही दी गई। (गा. १२३४-१२३६ टी. प. ५८) ६६. झूठे आरोप का अनावरण
दो मुनि थे। बड़े मुनि को बड़े होने का गर्व था। वह छोटे मुनि को आचार-विचार में अस्खलित होने पर भी कषायोदय के कारण तर्जना देता रहता था। वह कहता-अरे दुष्ट शिष्य ! यह स्खलना क्यों करता है ? उसको उच्चारण के लिए भी टोकता रहता था। दूसरे साधुओं ने बड़े साधु को ऐसा न करने के लिए प्रेरित किया। परंतु वह कषाय के वशीभूत होकर हाथ भी उठा लेता था। तब उस छोटे मुनि ने सोचा, यह बड़े होने के गर्व से गर्वित होकर मुझे लोगों के समक्ष ताड़ना-तर्जना देता है। अब मैं ऐसा कोई कार्य करूं कि यह मेरे से छोटा हो जाए।
एक बार दोनों भिक्षा के लिए गए। भूख-प्यास से पीड़ित होकर उन्होंने सोचा-अब हम देवकल या वृक्षों के झुरमुट में बैठकर कलेवा कर पानी पीयेंगे। दोनों उस ओर चले। इतने में ही छोटे मुनि ने देखा कि एक परिव्राजिका उसी देवकुल की ओर आ रही है। उस अवसर का लाभ उठाने के लिए उसने बड़े मुनि से कहा—आर्य ! अब आप प्रथमालिका करें और पानी पीएं। मैं संज्ञा से निवृत्त होकर आता हूं। यह कहकर वह शीघ्रता से उपाश्रय में आया और बड़े मुनि पर मैथुन का झूठा आरोप लगाया। रत्नाधिक मुनि से पूछा गया। उन्होंने कहा मेरे पर झूठा आरोप लगाया जा रहा है। आचार्य ने उसके आरोप को सुना। उन्होंने नाना प्रकार से उस घटना की अन्वेषणा की। अंत में आचार्य ने दोनों मुनियों से कहा—आज तुम दोनों इस बस्ती को छोड़कर अन्यत्र चले जाओ। हम इस घटना का निर्णय करने के लिए कायोत्सर्ग कर देवता को पूछेगे कि सत्यवादी कौन है और अलीकवादी कौन है ?
दोनों मुनि अन्यत्र बस्ती में चले गए फिर रात्रि वेला में आचार्य तथा एक वृषभ मुनि कापालिक का वेष कर, वहां गए जहां दोनों मुनि रह रहे थे। दोनों मुनि सो गए। आचार्य तथा वृषभ मुनि भी झूठी नींद में सो गए। दोनों मुनि परस्पर
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