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________________ परिशिष्ट-८ [१३६ दौड़े-दौड़े वहां आए और अमात्य को उठाकर ले गए। और उसे अज्ञात स्थान पर रख दिया। एक बार विशेष प्रसंग पर राजा ने अपने व्यक्तियों से पूछा-अमात्य कहां है ? पुरुषों ने कहा -देव ! आपने उसे अविनीत मानकर मरवा डाला है। यह सुनते ही राजा शोक-विह्वल होकर विलाए करने लगा कि अरे ! मैंने अकार्य कर डाला। लोगों ने कुछ नहीं बताया। जब राजा स्वस्थ हुआ तब उन लोगों ने कहा-देव ! हम खोज करते हैं कि जिन चांडालों को आपने अमात्य को मार डालने का आदेश दिया था, कहीं उन्होंने उसे छिपाकर तो नहीं रखा है ? उन लोगों ने कुछ दिन गवेषणा का बहाना करते हुए, एक दिन अमात्य को राजा के समक्ष उपस्थित कर दिया। अमात्य को देखकर राजा संतुष्ट हुआ। अमात्य ने तब सारा वृत्तांत सुनाया। प्रसन्न होकर राजा ने उसे विपुल धन दिया। (गा. ११२५-११३१ टी. प. ३६) ५७. व्यंतरी का प्रतिशोध एक श्रेष्ठी था। उसके दो पलियां थीं। एक प्रिय थी, दूसरी अप्रिय । वह दूसरी पत्नी अकाम-मरण से मरकर व्यंतरी बनी। श्रेष्ठी भी स्थविरों के पास धर्म-श्रवण कर प्रव्रजित हो गया। वह व्यंतरी पूर्वभव के वैर के कारण मुनि के छिद्र देखने लगी। एक बार मुनि प्रमत्त थे। व्यंतरी ने उन्हें ठग लिया। (गा. ११४३ टी. प. ३६) ५८. कामभोगों में आसक्ति __एक गांव में दो भाई साथ-साथ रहते थे। बड़े भाई की पत्नी छोटे भाई में अनुरक्त थी। वह उससे भोग की प्रार्थना करती। छोटा भाई उससे भोग भोगना नहीं चाहता था। उसने कहा—यदि बड़ा भाई जान लेगा तो जीवित नहीं छोड़ेगा। तक मेरा पति जीवित रहेगा तब तक यह मेरा देवर मेरा नहीं होगा। अब वह प्रतिदिन पति के छिद्र देखने लगी, अवसर की प्रतीक्षा करने लगी। एक दिन उसने भोजन में विष मिलाकर पति को मार डाला। अब वह अपने देवर से बोली-जिसका भय था वह मर गया। अब तुम मेरी मनोकामना पूरी करो। छोटे भाई ने सोचा निश्चित ही इसी ने मेरे बड़े भाई को मारा है। धिक्कार है ऐसे कामभोगों को ! वह विरक्त होकर प्रव्रजित हो गया। वह दुःख से संतप्त होकर बाल-मरण कर व्यंतरी बनी। उसने अवधिज्ञान का प्रयोग कर जान लिया कि उसका देवर श्रामण्य में स्थित है। उसने सोचा, इसने मुझे नहीं चाहा था। वह पूर्वभव के वैर का स्मरण करती हुई उस मुनि के पास आई और उसे प्रमत्त देखकर ठग लिया। (गा. ११४४ टी. प. ४०) ५६. व्यंतरी ने ठगा एक कौटुंबिक था। वह बलिष्ठ और सुंदर था। एक कर्मकरी उसके प्रति आसक्त हो गई और उसने भोग की प्रार्थना की। कौटुंबिक ने उसे स्वीकार नहीं किया। वह अत्यंत दुःखी होकर, मरकर व्यंतरी बनी। वह कौटुंबिक प्रव्रजित हो गया । एक बार वह श्रामण्य में प्रमत्त हुआ। व्यंतरी ने पूर्वभव के वैर के कारण उसे ठग लिया। (गा. ११४५ टी. प. ४०) ६०. स्त्रियों की विमुक्ति मथुरा नगरी में एक स्तूप महोत्सव था। उसकी पूजा के निमित्त श्राविकाएं श्रमणियों के साथ बाहर गईं। साथ में राजपुत्र भी साधु के वेश में निकट में ही आतापना के लिए बैठा था। इतने में ही लोगों के अपहर्ता चोर श्राविकाओं और श्रमणियों का अपहरण कर उन्हें ले जाने लगे। वे राजपुत्र की ओर शीघ्रता से आगे बढ़ रहे थे। स्त्रियों ने साधु (राजपुत्र) को देखकर आक्रंदन किया। राजपुत्र ने चोरों के साथ युद्ध कर उन स्त्रियों को छुड़ा दिया। (गा. ११६१ टी. प. ४३) ६१. अपरिग्रही गणिका एक गणिका थी। उसके पास कुछ भी परिग्रह नहीं था। वह अपरिग्रही गणिका के नाम से प्रसिद्ध थी। एक बार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002531
Book TitleAgam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya
Original Sutra AuthorSanghdas Gani
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages860
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vyavahara
File Size14 MB
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