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________________ परिशिष्ट-१२ [१८३ तुल्ले वि इंदियत्थे, सज्जति एगो विरज्जती बितिओ। अज्झत्थं खु पमाणं, न इंदियत्था जिणा बेति।। इन्द्रिय-विषयों की प्राप्ति समान होने पर भी एक व्यक्ति उनसे विरक्त होता है और दूसरा आसक्त। अतः इन्द्रियों के विषय प्रधान नहीं हैं, प्रधान है अध्यात्म। (गा. १०२८) मणसा उवेति विसए, मणसेव य सन्नियत्तए तेसु । इति वि हु अज्झत्थसमो, बंधो विसया न उ पमाणं ।। पुरुष मन से ही विषयों के प्रति आकृष्ट होता है और मन से ही उनसे विरत होता है। मन ही बंध और मोक्ष का प्रमाण है, विषय नहीं। (गा. १०२६) न हु होति सोइयव्वो, जो कालगतो दढो चरित्तम्मि । वह शोचनीय नहीं है, जो दृढ़ चारित्र का पालन कर कालगत होता है। (गा. १०८४) सो होति सोइयव्वो, जो संजमदुब्बलो विहरे। ___ शोचनीय वह है, जो संयम में दुर्बल है। (गा. १०८४) रागद्दोसाणुगता जीवा, कम्मस्त बंधगा होति । राग-द्वेष से अनुगत जीव कर्म का बंधन करता है। (गा. १११०) जो होइ दित्तचित्तो, सो पलवति अणिच्छियव्वाई। __ जो दृप्तचित्त होता है, वह अनर्गल प्रलाप करता है। (गा. ११२३) विसस्स विसमेवेह, ओसधं अग्गिमग्गिणो। मंतस्स पडिमंतो उ, दुजणस्स विवजणा।। विष का प्रतिकार विष, अग्नि का प्रतिकार अग्नि और मंत्र का प्रतिकार प्रतिमंत्र है। वैसे ही दुर्जन का प्रतिकार है उसकी वर्जना करना। (गा. ११५६) दीसति धम्मस्स फलं,पच्चक्खं तत्थ उज्जमं कुणिमो। इड्डीसु पतणुवीसुं, व सज्जते होति णाणत्तं ।। राजा आदि की ऋद्धि देखकर व्यक्ति सोचते हैं--यह धर्म का प्रत्यक्ष फल है। हमें भी इस ओर उद्यम करना चाहिए। तब वे व्यक्ति अल्पतर ऋद्धियों में भी आसक्त हो जाते हैं। (गा. १२५६) वेसकरणं पमाणं, न होति न य मज्जणं णऽलंकारो। सत्यान्वेषण में न वेश प्रमाण होता है, न मज्जन और न अलंकार। (गा. १२८३) साहीणभोगचाई, अवि महती निजरा उ एयस्स। जो अपने स्वाधीन भोगों को त्यागता है, उसके महान् निर्जरा होती है। (गा १२६७) सुहुमो वि कम्मबंधो, न होति तु नियत्तभावस्स । जो निवृत्ति में रहता है, उसके तनिक भी कर्मबंध नहीं होता। (गा. १२६७) सज्झाय-संजम-तवे, धणियं अप्पा नियोतव्यो।। आत्मा को निरन्तर स्वाध्याय, संयम और तप में लगाना चाहिए। (गा. १३४०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002531
Book TitleAgam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya
Original Sutra AuthorSanghdas Gani
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages860
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vyavahara
File Size14 MB
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