________________
१८४ ]
न गणो धरेयव्वो ।
आहारोवहिपूयाकारण कम्माण निजरट्ठा, एवं खु गणो भवे धरेयव्वो । ।
गण में रहने का लक्ष्य आहार, उपधि और पूजा प्राप्त करना नहीं है। गण में रहने का लक्ष्य है कर्मों की निर्जरा ।
(गा. १४००, १४०१ )
आकितिमतो हि नियमा, सेसा वि हवंति लद्धीओ ।
आकृतिमान् व्यक्ति को अन्यान्य लब्धियां भी सहज प्राप्त हो जाती हैं।
छिद्दाणि निरिक्खंतो, मायी तेणेव असुईओ ।
जो छिद्रान्वेषी होता है, वह मायावी है। मायावी अशुचि होता है।
असच होति माई तु ।
मायावी असत्यप्रिय होता है।
मी कुणति अक ।
मायावी व्यक्ति अकार्य करता है।
चरणकरणं जहंतो, सच्चव्यवहारयं पि जहे ।
जो संयम को छोड़ता है, वह सत्य को भी छोड़ देता है।
जइया गेणं चत्तं, अप्पणतो नाण- दंसण चरित्तं । ताधे तस्स परेसुं, अणुकंपा नत्थि जीवेसु । ।
ज्ञान, दर्शन, चारित्र से रहित व्यक्ति दूसरों की अनुकम्पा कैसे कर सकेगा ? यस्य ह्यात्मनो दुर्गतौ प्रपततो नानुकम्पा तस्य कथं परेष्वनुकम्पा भवेद् ?
जो स्वयं पर अनुकम्पा नहीं कर सकता, वह दूसरों पर अनुकम्पा कैसे करेगा ? संघो गुणसंघातो, संघायविमोयगो य कम्माणं । रागद्दोसविमुक्को, होति समो सव्वजीवाणं । ।
परिशिष्ट- १२
सच्चकरणजोगा, ते संसारा विमोएंति ।
जिनकी कथनी और करनी समान होती है, वे ही संसार से मुक्त होते हैं ।
(गा. १४१६)
Jain Education International
(गा. १६४० )
For Private & Personal Use Only
(गा १६४६ )
(गा. १६४६ )
(गा. १६७१)
संघात संघ है। वह प्राणी को कर्मसंघात से मुक्त करता है। राग-द्वेष से रहित संघ सभी जीवों के प्रति सम होता (गा. १६७७)
(गा. १६७२ )
है ।
आसासो वीसासो, सीतघरसमो य होति मा भाहि । अम्मापितीसमाणो, संघो सरणं तु सव्वेसिं । ।
संघ आश्वास है, विश्वास है, शीतगृह के समान है, माता-पिता की तरह संरक्षक है, सभी के लिए शरण है, उससे डरो
मत ।
(गा. १६८१ )
(गा. १६७२ टी. प. ६५)
सीसो पडिच्छओवा, आयरिओ वा न सोग्गती नेति ।
जे सच्चकरणजोगा, ते संसारा विमोएंति । ।
शिष्य या आचार्य किसी को सुगति प्राप्त नहीं करा सकते। सुगति प्राप्त होती है अपनी ही कथनी और करनी की समानता
से ।
(गा. १६८२ )
(गा. १६८४ )
www.jainelibrary.org