________________
रिशिष्ट - १२
सीसे कुलव्विए गणव्विय संघव्विए य समदरिसी ।
ववहारसंथवेसु य, सो सीतघरोवमो संघो ।।
वह संघ शीतगृहतुल्य है— जो कुल, गण, संघ से संबंधित सभी शिष्यों तथा पूर्वसंस्तुत, पश्चात्संस्तुत और अन्य शिष्यों के प्रति समदर्शी होता है ।
(गा. १६८६ )
[ १८५
नाण-चरणसंघातं रागद्दोसेहि जो विसंघाते ।
सो भमिही संसारे, चउरंगतं अणवदग्गं । ।
जो रागद्वेष के वशीभूत होकर ज्ञान और चारित्र के संघात का विघटन करता है, वह चतुर्गत्यात्मक संसार में अनन्तकाल तक भ्रमण करता है ।
(गा. १६८६ )
दुक्खेण लभति बोधि, बुद्धो वि य न लभते चरित्तं तु । उम्मग्गदेसणाए, तित्थगरासायणाए
य।।
जो व्यक्ति उन्मार्ग की प्ररूपणा करता है, वह तीर्थंकरों की आशातना करता है। उसके लिए बोधि की प्राप्ति दुर्लभ होती है । उसे बोधि की प्राप्ति हो जाने पर भी चारित्र की प्राप्ति नहीं हो सकती।
(गा. १६६० )
इहलोए य अकित्ती, परलोए दुग्गती धुवा तेसिं । अणाणाए जिणिदाणं, जे ववहारं ववहरति । ।
जो वीतराग की आज्ञा के विपरीत व्यवहार करते हैं, उनकी इहलोक में अकीर्ति और परलोक में दुर्गति होती है ।
(गा. १७०३)
इहलोगम्मिय कित्ती, परलोगे सोग्गती धुवा तेसिं । आणाए जिणिदाणं, जे ववहारं ववहरंति । ।
जो जिनेश्वरदेव की आज्ञा के अनुसार व्यवहार करते हैं, उनकी इहलोक में कीर्ति और परलोक में सुगति होती है। (गा. १७०७)
न हु गारवेण सक्का, ववहरिउं संघमज्झयारम्मि ।
नासेति अगीतत्थो, अप्पाणं चेव कज्जं तु । ।
संघ में रहता हुआ अगीतार्थ मुनि अहं से अपना व्यवहार नहीं चला सकता। वह अपने ही कार्य का नाश कर डालता है। (गा. १७२३ )
नासेति अगीयत्थो, चउरंगं सव्वलोए सारंगं । नट्ठम्मि उ चउरंगे, न तु सुलभं होति चउरंगं । ।
अगीतार्थ मुनि सर्वलोक में सारभूत चतुरंग (मानुषत्व, श्रुति, श्रद्धा और संयम ) का नाश कर देता है। चतुरंग का नाश होने पर उसकी पुनः प्राप्ति सुलभ नहीं होती । (गा. १७२४)
आगाढमुसावादी, बितिय तईए य लोवितवते तु । माई य पावजीवी, असुईलित्ते कणगदंडे । ।
जो मुनि कुल, संघ तथा गण के कार्य में झूठ बोलता है, वह दूसरे-तीसरे—दोनों महाव्रतों को नष्ट कर देता है। वह मायावी और पापजीवी मुनि अशुचि से लिप्त स्वर्णदंड की भांति अस्पृश्य होता है।
(गा १७२७)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org