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दोहं चउकण्णरहं भवेज छक्कण्ण मो न संभवति ।
चार कानों (दो व्यक्तियों) तक रहस्य रहस्य रहता है। छह कानों (तीन व्यक्तियों) तक पहुंचने पर रहस्य रहस्य नहीं रहता।
(गा. १८५२ )
पुरिसोत्तरिओ धम्मो, होति पमाणं पवयणम्मि । जिन प्रवचन में पुरुषोत्तर धर्म ही प्रमाण है।
दुक्खं खु सामण्णं ।
श्रामण्य का पालन दुष्कर है।
इति खलु आणा बलिया. आणासारो य गच्छवासो उ । मोत्तुं आणापाणुं, सा कज्जा सव्वहिं जोगे । ।
भगवद् आज्ञा ही बलवान् है। आज्ञा का पालन करना चाहिए।
सुहसीलो दुट्ठसीलो ति ।
जो सुखशील होता है, वह अधम होता है ।
तणुगं पि नेच्छ दुक्खं, सुहमाकंखए सदा । सुहसीलतए वावी, सायागारवनिस्सितो ।।
सुखशील व्यक्ति तनिक भी कष्ट नहीं सह सकता। वह सदा सुखाकांक्षी बना रहता है।
अतिरेगउवधिअधिकरणमेव सज्झाय-झाण पतिमंथो ।
अतिरिक्त उपधि का संग्रह कलह का कारण और स्वाध्याय-ध्यान का अवरोधक होता है।
न संचये सुहं अस्थि, इहलोए परत्थ य ।
आज्ञा का सार है गच्छ में रहना। आनापान को छोड़कर संघ में रहते हुए सब योगों से
(गा. २०७४)
संचय -- परिग्रह से न इहलोक में सुख है और न परलोक में।
वंतं निसेवितं होति, गेण्हंता संचयं पुणो ।
जो प्रव्रजित होकर संचय करते हैं, वे वान्त या त्यक्त का पुनरासेवन करते हैं।
मिच्छत्तं न जधावादी, तधाकारी भवंति उ ।
मिथ्यादृष्टि व्यक्ति की कथनी-करनी समान नहीं होती ।
दुल्लभलाभा समणा ।
श्रमणों का सान्निध्य दुर्लभ है।
परिशिष्ट- १२
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(गा १८८६)
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(गा. २०३३)
(गा. २१६७)
(गा. २१६८ )
(गा. २१७६)
(गा. २४१५ )
(गा. २४२१ )
(गा. २४२१ )
चरणकरणस्स सारो, भिक्खायरिया तधेव सज्झाओ। एत्थ परितम्ममाणं तं जाणसु मंदसंविग्गं ।। चरणकरणस्स सारो, भिक्खायरिया तधेव सज्झाओ। एत्थ उ उज्जममाणं तं जाणसु तिव्वसंविग्गं । ।
चरण-करण - महाव्रतों के पालन का सार है संयम और स्वाध्याय करना । जो इसमें परितप्त होता है, उसका वैराग्य मंद है। जो संयम और स्वाध्याय में प्रयत्नशील रहता है, उसका वैराग्य तीव्र होता है।
(गा. २४८४, २४८५).
(गा. २४५१ )
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