SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 782
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परिशिष्ट - १२ आणाबलाभियोगा निग्गंथाणं न कप्पए काउं । निर्ग्रन्थ बलाभियोग न करे। सहसहा भिक्खू । भिक्षु वह है, जो अनुकूल और प्रतिकूल को सहन करता है। महतीय निज्जराए, वट्टति साधू दसविहम्मि । सेवा से महान् निर्जरा होती है। पूतिय क्खति य, सीसा सव्वे गणि सदा पयता | इध परलोए य गुणा, हवंति तप्पूयणे जम्हा । । शिष्य गुरु की सदा पूजा करने में प्रयत्नशील रहते हैं। पूजा का परिणाम है— इहलोक और परलोक में गुणों की वृद्धि । (गा. २५६६ ) जो सो मणप्पसादो, जायति सो निजरं कुणति ।" संयम की साधना में जितना मनःप्रसाद होता है, उतनी ही कर्मों की निर्जरा होती है। वेयावच्चं करेमाणे महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवति । जो सेवा करता है, वह महानिर्जरा ( बद्धकर्मों का निर्जरण) और महापर्यवसान (नए कर्मों का अबंध) करता है । (गा. २५६६ टी. प. २२) जसं समुवजीवंति, जे नरा वित्तमत्तणो । यश की प्राप्ति शील से होती है। [ १८७ (गा. २५२१ टी. प. १२) तणाण लहुतरो होहं, इति वज्जेति पावगं । यदि मैं पापाचरण करूंगा तो (गा. २५४० ) गुरु अणुकंपाए पुण, गच्छो अणुकंपितो महाभागो । गच्छाणुकंपयाए अव्वोच्छित्ती कया तित्थे । । गुरु की अनुकम्पा से गच्छ की अनुकम्पा होती है और गच्छ की अनुकम्पा से तीर्थ की अव्युच्छित्ति - निरन्तरता बनी रहती है। (गा. २६७२ ) Jain Education International संतगुणुक्कित्तणया, अवण्णवादीण चेव पडिघातो । अवि होज संसईणं, पुच्छाभिगमे दुविध लंभो ।। सद्गुणों के कीर्तन से अनेक लाभ होते हैं—महान् निर्जरा, अवर्णवाद का प्रतिघात, शंकाशील व्यक्तियों द्वारा शंका-निवारण, शंका-निवृत्त होने पर प्रव्रज्या - ग्रहण इत्यादि । (गा. २६८१ ) तृण 'से भी लघुतर हो जाऊंगा, इसलिए मुझे पापाचरण नहीं करना चाहिए। For Private & Personal Use Only (गा. २६३२ ) (गा. २६३६) लोए लोउत्तरे चैव गुरवो मज्झ सम्मता । मा हु मज्झावराहेण, होज्ज तेसिं लहुत्तया । । इस लोक और लोकोत्तर में मेरे लिए गुरु ही सम्मत हैं। मेरी भूल से उनकी लघुता न हो, यही मेरे लिए श्रेयस्कर है। (गा. २७५४) (गा. २७५१ ) (गा. २७५५) www.jainelibrary.org
SR No.002531
Book TitleAgam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya
Original Sutra AuthorSanghdas Gani
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages860
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vyavahara
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy