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________________ १८८] परिशिष्ट-१२ आयसक्खियमेवेह, पावगं जो वि वज्जते । आत्मसाक्षी से पाप का वर्जन करो। (गा. २७५६) अप्पेव दुट्ठसंकप्पं, रक्खा सा खलु धम्मतो।। आत्मा के दुष्ट संकल्प का धर्माचरण से निवारण करना चाहिए। (गा. २७५६) निस्सग्गुस्सग्गकारी य, सव्वतो छिन्नबंधणो। एगो वा परिसाए वा, अप्पाणं सोऽभिरक्खति।। जो स्वभावतः उत्सर्गकारी और सर्वथा ममत्वरहित है, वह चाहे अकेला हो या भीड़ में, वह अपनी आत्मा का संरक्षण कर लेता है। (गा. २७५७) परिणामाणवत्थाणं, सति मोहे उ देहिणं । तस्सेव उ अभावेण, जायते एगभावया।। मोह की विद्यमानता में परिणामों की अस्थिरता होती है। मोह के अभाव में परिणामों की एकरूपता होती है। (गा. २७५६) जधावचिजते मोहो, सुद्धलेसस्स झाइणो। तहेव परिणामो वि, विसुद्धो परिवड्ढते।। शुद्ध लेश्या वाले ध्यानी का मोह जैसे-जैसे तनु होता जाता है, वैसे-वैसे उसके परिणामों की विशुद्धि बढ़ती जाती है। (गा. २७६०) जधा य कम्मिणो कम्म, मोहणिज्जं उदिजति । तधेव संकिलिट्ठो से, परिणामो विवड्ढती।। जब मोह कर्म प्रबल होता है, तब आत्मा के संक्लिष्ट परिणामों की वृद्धि होती है। (गा. २७६१) जधा य अंबुनाधम्मि, अणुबद्धपरंपरा । वीई उप्पज्जई एवं, परिणामो सुभासुभो।। जैसे समुद्र में स्वभावतः लहरें उत्पन्न होती हैं, वैसे ही जीव में शुभ-अशुभ परिणाम उत्पन्न होते रहते हैं। (गा. २७६२) विसुज्झंतेण भावेण, मोहो समवचिज्जति । भावों की विशद्धि से मोह कर्म का अपचय होता है। (गा. २७६७) मोहस्सावचए वावि, भावसुद्धी वियाहिया।। मोह कर्म का अपचय होने पर भावों की विशुद्धि होती है। (गा. २७६७) उक्कड्ढंतं जधा तोयं, सीतलेण झविज्जती। गदो वा अगदेणं तु, वेरग्गेण तहोदओ।। उबलते हुए पानी में शीतल जल के छीटे देने से वह शान्त हो जाता है, रोग औषधि से शांत हो जाता है, वैसे ही मोह का उदय वैराग्य से उपशान्त हो जाता है। (गा. २७६८) नाणचरणतो सिद्धी ज्ञान और चारित्र से सिद्धि होती है। (गा. २८३०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002531
Book TitleAgam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya
Original Sutra AuthorSanghdas Gani
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages860
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vyavahara
File Size14 MB
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