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________________ १४०] व्यवहार भाष्य ४३०१. आलोचना के गुण। ४३०२-१०. ज्ञान, दर्शन, चारित्र संबंधी अतिचारों की आलोचना। ४३११-१५. अनशनकर्ता के लिए प्रशस्तस्थान का निर्देश। ४३१६-१६. अनशनकर्ता के लिए प्रशस्त वसति का निर्देश। ४३२०-२३. अनशनकर्ता के लिए निर्यापकों के गुण और कर्तव्य। ४३२४-३२. अनशनकर्ता को चरम आहार देने के गुण। ४३३३,४३३४. चरमाहार में द्रव्य-संख्या की परिहानि। ४३३५-३७. अनशनकर्ता के प्रति प्रतिचारकों का कर्तव्य। ४३३८-४१. प्रतिचारक और प्रतिचर्य के महान निर्जरा कब? कैसे? ४३४२-४४. अनशनकर्ता के लिए संस्तारक का स्वरूप। ४३४५,४३४६. अनशनकर्ता का उद्वर्तन विषयक विवेक। ४३४७-५६. अनशनकर्ता को समाधि उत्पन्न करने के उपाय। ४३६०-७०. अनशनकर्ता द्वारा आहार-पानी मांगने पर प्रतिचारकों का कर्त्तव्य। ४३७१-७३. अनशनकर्ता को आहार के बिना समाधि न होने पर आहार देने का निर्देश। ४३७४-७६. कालगत अनशनकर्ता का चिह्रकरण, प्रकार और विधि। ४३७७-८०. भक्तपरिज्ञा अनशन में व्याघात आने पर गीतार्थ द्वारा प्रयुक्त उपाय। ४३८१-६०. व्याघातिम बालमरण के हेतु। ४३६१. इंगिनीमरण अनशन और पांच तुलाएं। ४३६२-६४. भक्तपरिज्ञा और इंगिनीमरण में अन्तर । ४३८५-६८. पादोपगमन (प्रायोपगमन) अनशन का स्वरूप और विधि। ४३६६. प्रायोपगमन अनशनकर्ता के भेदविज्ञान का चिन्तन। ४४००. प्रायोपगमन अनशनकर्ता के मेरु की भांति अप्रकंपध्यान। ४४०१. प्रायोपगमन अनशनकर्ता की अर्हता। ४४०२, ४४०३.अनशनकर्ता के देव और मनुष्यों द्वारा अनुलोम-प्रतिलोम द्रव्यों का मुख में प्रक्षेप और उसका विवरण। ४४०४. अनशनकर्ता का संहरण। ४४०५. अनशनकर्ता की फलश्रुति। ४४०६. अनशनकर्ता को अनुलोम उपसर्गों में सम रहने का निर्देश। ४४०७, ४४०८. पूर्वभव के प्रेम से देवता द्वारा अनशनकर्ता का संहरण। ४४०६-१३. पुरुषद्वेषिणी विभिन्न गुणकलित राजकन्या द्वारा बत्तीस लक्षणधर अनशनी का ग्रहण तथा उसके द्वारा की जाने वाली चेष्टाएं। ४४१४-१६. अनशनी के अचलित होने पर उस कन्या द्वारा शिला-प्रक्षेप तथा अनशनी के महान निर्जरा। ४४१७,४४१८. मुनि सुव्रतस्वामी के शिष्य स्कन्दक कां वृत्तान्त। ४४१६,४४२०. श्वापदों द्वारा खाए जाने पर तथा अग्नि से जलाए जाने पर भी पादपोपगत का अविचलन। ४४२१,४४२२. चिलातिपुत्र की सहनशीलता के समान प्रायोपगमन अनशनकर्ता की सहनशीलता। ४४२३-२६. प्रायोपगमन अनशनी के निष्प्रतिकर्म का कालायवेसी, अवंतीसुकुमाल आदि अनेक दृष्टान्तों से समर्थन। ४४३०,४४३१. आचार्य भद्रबाहु द्वारा नियूंढ पांच व्यवहारात्मक श्रुत। ४४३२,४४३३. श्रुतव्यवहारी कौन? ४४३४,४४३५. कल्प और व्यवहार की नियुक्ति का ज्ञाता ही श्रुतव्यवहारी। ४४३६. कल्प और व्यवहार का निर्वृहण क्यों?, श्रुत व्यवहारी का स्वरूप। ४४३७-३६. आज्ञाव्यवहारी का स्वरूप और विवरण। ४४४०-४४५८ दूरस्थ आचार्य के पास आलोचना करने की विधि में आज्ञाव्यवहार का निर्देश तथा शिष्य की परीक्षा-विधि। ४४५६,४४६०. आलोचना के अठारह स्थान। ४४६१-६७. दर्पप्रतिसेवना और कल्पप्रतिसेवना के विविध विकल्प। ४४६८-४५०२. दर्प प्रतिसेवना और कल्पप्रतिसेवना के ३४ प्रकार की आलोचना का क्रम। ४५०३-४५०६. धारणा के एकार्थक तथा उनके व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ। ४५०७-११. धारणा व्यवहार किसके प्रति? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002531
Book TitleAgam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya
Original Sutra AuthorSanghdas Gani
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages860
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vyavahara
File Size14 MB
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