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व्यवहार भाष्य
मंत्री के चातुर्य के प्रसंग में भाष्यकार ने एक कथा का उल्लेख किया है। राजा और पुरोहित दोनों अपनी पत्नियों के परवश थे। अपनी-अपनी स्त्रियों के कहने से राजा घोड़ा बना तथा पुरोहित ने अकाल में शिर का मुंडन करवाया। मंत्री को चारपुरुषों से यह बात ज्ञात हुई। उसने सोचा, यदि पड़ोसी राजाओं को यह बात ज्ञात होगी तो वे राजा के इस कृत्य पर हंसेंगे तथा राजा का पराभव करेंगे। राजा को स्त्रीपरवश जानकर राज्य पर भी अधिकार कर लेंगे। मंत्री राजा और पुरोहित के सामने वक्रोक्ति में बोला-'उस ग्राम और नगर को धिक्कार है, जहां पर स्त्री नायिका होती है। वे पुरुष भी धिक्कार के पात्र हैं, जो स्त्री के पराधीन हैं। जिस गांव या नगर में स्त्री बलवान् है, वह शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। इस प्रकार अमात्य समय पर राजा को भी शिक्षा देता था।
राजकमार को यद्धविद्या सिखाई जाती थी। वह रणनीति में कशल होता था। पड़ोसी या अनार्य राजा द्वारा उपद्रव किए जाने पर राजकुमार उनको उपशान्त करने में सक्षम होता था। जो दुर्दान्त शत्रु होते, उनमें अपनी शक्ति से क्षोभ उत्पन्न कर देता था। वह पूरे जनपद में तथा सभी दिशाओं में अपने पराक्रम एवं दमननीति के लिए प्रसिद्ध होता था।
वैद्य
वैद्यशास्त्रों में निपुण वैद्य पूरे जनपद में सम्मानार्ह होते थे क्योंकि नागरिकों के आरोग्य के वे मुख्य संवाहक होते थे। माता-पिता द्वारा संक्रान्त अथवा आतंक या रोग से उत्पन्न दोष का समाधान वैद्य करते थे। वे सबमें शारीरिक समाधि पैदा करते थे। युद्धस्थलों में भी वैद्यों को साथ ले जाया जाता था। कुशल वैद्य घायल सुभटों की चिकित्सा कर उनको दूसरे दिन युद्ध के लिए तैयार कर देते थे।
धनवान्
धनवान एवं श्रेष्ठी लोग किसी भी देश की शोभा होते थे। उनके पास दादा-परदादा से संक्रान्त करोड़ों की सम्पदा तथा विपुल मात्रा में सोना, मणि-मुक्ता तथा विभिन्न रत्नों का भण्डार होता था। विपुल ऐश्वर्य से युक्त व्यक्ति ही धनवान् की कोटि में आते थे। नैतिक
जो धान्य वितरण की व्यवस्था में नियुक्त होते थे, वे नैयतिक कहलाते थे। उनके पास सभी प्रकार के धान्यों का विपुल संग्रह होता था। स्थान-स्थान पर उनके धान्य कोठागार होते थे। धान्य के वितरण में उनकी प्रमुख भूमिका होती थी।
रूपयक्ष
__ भारतीय राज्य व्यवस्था का यह वैशिष्ट्य रहा है कि यहाँ राजनीति धर्म से संपृक्त रही है। अशोक के शिलालेखों में धर्म-महामात्रों का उल्लेख इसी बात की ओर संकेत करता है। मलयगिरि ने रूपयक्ष का अर्थ धर्मपाठक किया है। अर्थात् जो मूर्तिमान् धर्म हो, वे रूपयक्ष कहलाते थे। रूपयक्ष को आज की भाषा में धर्माध्यक्ष (न्यायाधीश) कहा जा सकता है। ये भंभी, आसुरुक्ष आदि शास्त्रों के ज्ञाता होते थे। ये माढर के नीतिशास्त्र एवं कौटिल्य द्वारा प्रणीत दण्डनीति में प्रवीण होते थे। किसी भी परिस्थिति में रिश्वत ग्रहण कर न्याय करने के पक्षधर नहीं होते थे। यह मेरा है और यह पराया-ऐसा सोचकर किसी के साथ पक्षपात नहीं करते तथा निर्णय में सदा निष्पक्ष रहते थे।
१. व्यभा. ६३२-३७। २. व्यभा. ६४७ टी प. १३१ : राज्ञोऽपि यः शिक्षाप्रदानेऽधिकारी सोऽमात्यः । ३. व्यभा.६४ ४. व्यभा. ६४६ ५. व्यभा.६५० ६. व्यभा-६५११ ७. व्यभा.८५२।
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