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________________ व्यवहार भाष्य एक अनुशीलन [ ५ राजा, वैद्य आदि पांचों व्यक्ति राज्य की सुव्यवस्था के सशक्त घटक होते थे । समूचे जनपद की सुख-शांति इन्हीं पर निर्भर रहती थी। राजा भारतीय राज्य व्यवस्था में राजा को सर्वोपरि स्थान प्राप्त था। वह देवता की भांति पूज्य होता था । प्रायः सभी प्राचीन ग्रंथों में राजा के कर्त्तव्य एवं उसके आदर्शों का वर्णन मिलता है।' राजा के सहयोगी के रूप में युवराज, महत्तरक, अमात्य और कुमार-इन चार व्यक्तियों का उल्लेख मिलता है। ये पांच तत्त्व जिस शासन व्यवस्था में होते, वह गुणयुक्त विशाल राज्य माना जाता था। भाष्य के अनुसार राजा अपने द्वारा अर्जित स्वाधीन ऐश्वर्य का भोग करने वाला, उद्वेग रहित, राज्य की किसी भी व्यवस्था की चिन्ता से मुक्त, राज्य व्यवस्था के संचालन में निरपेक्ष होता था। वह पितृपक्ष एवं मातृपक्ष से शुद्ध, प्रजा से दसवां हिस्सा कर लेकर संतुष्ट होने वाला, लौकिक आचार- समस्त धर्म-दर्शनों एवं नीतिशास्त्र आदि का ज्ञाता तथा धर्म के प्रति अत्यधिक आस्था रखने वाला होता था। ३ भाष्य - साहित्य में दो प्रकार के राजाओं का उल्लेख मिलता है- सापेक्ष एवं निरपेक्ष । सापेक्ष राजा अपने जीवन काल में ही योग्य उत्तराधिकारी को युवराज पद दे देता था, जिससे वह शासन व्यवस्था में निपुण हो जाए और लोगों की उसके प्रति आस्था जग जाए। जिस राजा के कालगत हो जाने पर सामंत या मंत्री उत्तराधिकारी का चुनाव करते, वह निरपेक्ष राजा कहलाता था। * प्रकारान्तर से भाष्य में राजा के दो भेद और मिलते हैं- आत्माभिषिक्त एवं पराभिषिक्त । जो अपने पराक्रम से राज्य में राजा के रूप में अभिषिक्त होता, वह आत्माभिषिक्त कहलाता है जैसे भरत चक्रवर्ती जिनका अभिषेक दूसरों के द्वारा किया जाता है, वे पराभिषिक्त हैं, जैसे- भरत के पुत्र आदित्ययशा आदि । " I जो राजा चतुरंगिणी सेना, अनेक प्रकार के वाहन, समृद्ध भाण्डागार एवं औत्पत्तिकी आदि बुद्धि से युक्त होते वे सफल राजा कहलाते थे। बल, वाहन एवं धन आदि से हीन राजा राज्य की रक्षा नहीं कर सकता था। राजाज्ञा का बहुत महत्त्व होता था। उसको भंग करने वाले को कड़ा दण्ड मिलता । कभी-कभी अपराधी को प्राणदण्ड भी दिया जाता था । राजा के पश्चात् दूसरा महत्त्वपूर्ण स्थान युवराज का था। युवराज प्रातःकाल अपने दैनिक कार्यों एवं धार्मिक अनुष्ठान से निवृत्त होकर राज्य सभा में आकर बैठता तथा राज्य की व्यवस्था को देखता था। राज्य का तीसरा महत्त्वपूर्ण अंग महत्तरक था। महतरक युवराज के साथ राज्य के कार्य में हाथ बंटाता था। वह गंभीर, मृदु, नीतिशास्त्र में कुशल तथा विनयसम्पन्न होता था।" इस शब्द की विस्तृत व्याख्या डा. मोहनचंद ने अपने शोधग्रन्थ में की है। १० राज्य शासन की व्यवस्था चलाने में मंत्री का महत्वपूर्ण स्थान होता था वह राजा के हर कार्य में सहयोगी रहता था। समय-समय पर राजा को परामर्श देने में भी उसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती थी। कौटिल्य ने राजा को निर्देश दिया है कि उसे मंत्रिपरिषद् से परामर्श लेना चाहिए कौटिल्य के अनुसार इंद्र को सहस्राक्ष इसीलिए कहा गया क्योंकि उसकी मंत्रिपरिषद् में १००० बुद्धिमान पुरुष थे, जो उसके नेत्र रूप थे।" भाष्य के अनुसार पूरे जनपद एवं देश की चिन्ता मंत्री के जिम्मे होती थी। मंत्री का व्यवहारज्ञ एवं नीतिकुशल होना अनिवार्य था । व्यवहार कुशलता से वह हर विवाद को आसानी से निपटा देता था । ' १. देखें-- महाभारत शान्ति पर्व । .१२ २. व्यभा. ६२६ । ३. व्यभा. ६२७, ६२८ । ४. व्यभा. १८६२ - ६५ । ५. व्यभा. २४०८ । ६. व्यभा. २४०६, २४१० ॥ ७. व्यभा. ३१०३, ४२६२, ४२६३ । ८ व्यभा• ६२६ । ६ व्यभा. ६३० १०. जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज पृ. १२६-३४ । ११. अर्थशास्त्र १/१०/५ पृ. ४७ : इंद्रस्य हि मंत्रिपरिषदृषीणां सहस्रम् । तच्चक्षुः । तस्मादिदं द्व्यक्षं सहस्राक्षमाहुः १२. व्यभा. ६३१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002531
Book TitleAgam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya
Original Sutra AuthorSanghdas Gani
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages860
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vyavahara
File Size14 MB
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