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परिशिष्ट-८
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अपने अंतःपुर में भेज दिया और अंतःपुर की संरक्षिका महत्तरिका को बुलाकर कहा-जैसे तुम मेरी कन्याओं की रक्षा करती हो उसी प्रकार इन दोनों कन्याओं की भी मृत्युपर्यन्त रक्षा करना। उस महत्तरिका ने विनयावनत होकर कहा—देव ! इनका अत्यधिक ध्यान रखूगी। इतना कहकर वह दोनों कन्याओं को लेकर अंतःपुर में चली गई।
मूलवणिक् पुत्री ने महत्तरिका से कहा—जैसे तुम राजकन्याओं की रक्षा करती हो, वैसे ही मेरी भी रक्षा करना। जैसे मेरी रक्षा करो, वैसे ही मेरी सखी की भी रक्षा करना। महत्तरिका उनका उचित संरक्षण करने लगी। कुछ काल व्यतीत हुआ और वह संरक्षिका महत्तरिका कालगत हो गईं। उसकी मृत्यु के पश्चात् वे कन्याएं दुःशील हो गईं। उनको दुःशील देखकर श्रेष्ठीपुत्री ने राजा से कहा-आप अन्य महत्तरिका को नियुक्त करें। राजा ने दूसरी महत्तरिका की नियुक्ति कर दी। उसने कन्याओं को दुःशील देखकर उपालंभ दिया, उनकी भर्त्सना की।
कुछ समय पश्चात् वणिक् देशाटन कर लौट आया। उसने राजा के पास जाकर प्रार्थना की-देव ! मैं अपनी पुत्री को घर ले जाना चाहता हूं। वणिक की प्रार्थना को स्वीकार कर राजा ने दोनों कन्याओं को ससम्मान घर भेज दिया और कुलीन घरों में उनका विवाह कर दिया। दहेज में विपुल सामग्री दी। (गा. १६०१-१६०८ टी. प. ३३,३४) ८६. चावल के पांच दाने
राजगृह नगर में धन नामक श्रेष्ठी रहता था। उसके चार पुत्रवधुएं थीं। एक दिन उसने सोचा, मेरी कौन-सी पुत्रवधू घर की वृद्धि करेगी। उसने उनकी परीक्षा करने अपने स्वजन वर्ग को निमंत्रित किया। भोज के अनन्तर सेठ ने चारों पुत्रवधू को बुला भेजा और प्रत्येक को पांच-पांच शालिकण देकर कहा, इनको सुरक्षित रखना। जब मैं मांगू तब लौटा देना। पहली पुत्रवधू ने सोचा, इस बूढ़े सेठ को अपने स्वजन वर्ग के समक्ष हमें चावल के पांच-पांच दाने देते लज्जा नहीं आई। यह कुछ नहीं जानता। जब मांगेगा तब चावल के दूसरे पांच दाने ला दूंगी। यह सोचकर उसने पांचों शालिकण फेंक दिये। दूसरी पत्रवधु ने उन्हें खा लिया। तीसरी ने उन शालिकणों को आभूषणों की पेटी में सुरक्षित रख दिया। चौथी ने अपने भाई के खेत में उन शालिकणों का वपन कराया और एक वर्ष में उनकी वृद्धि हो गई।
एक वर्ष बीता। सेठ ने पुनः स्वजनों को भोज के लिए निमंत्रित किया। भोजन कर चुकने पर पुत्रवधुओं को बुलाकर कहा-मेरे पांचों शालिकण मुझे वापस दो। पहली पुत्रवधू ने दूसरे स्थान से पांच शालिकण मंगाकर दे दिए। सेठ ने सबको सुनाते हुए कहा—ये वे ही शालिकण हैं या दूसरे ? उसने कहा-मैंने तो उन्हें उसी समय फेंक दिये थे। ये दूसरे हैं। दूसरी पुत्रवधू से पूछा। उसने कहा—मैंने उनको खा लिया था। तीसरी पुत्रवधू ने शालिकणों को कहा—यह वही शालिकण हैं। मैंने इन्हें आभूषण की पेटिका में सुरक्षित रख छोड़ा था। चौथी पुत्रवधू बोली-सेठ जी, आप शकटों को भेजें। मैं शालिकण मंगवा देती हैं। सेठ ने आश्चर्यचकित होकर इसका कारण पूछा। उसने सारा वृत्तान्त बता दिया। उनके दीर्घपरिमाण की बात कही। सेठ ने तब कहा-इस पुत्रवधू ने पांच शालिकणों का इतना विस्तार कर डाला। यह मेरे घर की मालकिन बनने योग्य है। तीसरी पुत्रवधू को भंडार का काम सौंपा। दूसरी पुत्रवधू जिसने चावल खा डाले थे, उसे रसोई घर का भार सौंपा और चौथी को घर की सफाई का भार दिया। (गा. १६१० टी.प. ३४, ३५) ६०. शक्तिशाली का परीक्षण
एक राजा था। उसके अनेक पुत्र थे। राजा ने सोचा, इनमें से जो शक्तिशाली होगा, उसको राज्य दूंगा। उसने कुमारों की परीक्षा प्रारंभ की। अपने कर्मकरों से कहा-एक स्थान पर दही से भरे घड़ों को रखो। उन्होंने घड़े रखकर राजा को निवेदन कर दिया। अमात्य को बुलाकर कहा- तुम दही के घड़ों के पास बैठ जाओ। फिर राजा ने कुमारों को बुलाकर कहा-जाओ, एक-एक दही से भरा घड़ा ले आओ। कुमार गए। इधर-उधर देखा। घड़ों को वहन कर ले जाने वाला कोई न दीखा, तब वे स्वयं एक-एक घड़ा उठाकर चले। एक कुमार घड़ों के पास गया। सभी ओर देखा, पर घड़ा उठाने वाला एक भी नजर नहीं आया, तब उसने अमात्य से कहा- दही के घड़े को उठाओ। अमात्य उठाना नहीं चाहता था।। कुमार ने म्यान से तलवार निकालते हुए कहा—यदि घड़े को उठाने की इच्छा नहीं है तो मैं अभी तुम्हारा सिरच्छेद कर देता
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