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परिशिष्ट
ले रहे हो ? कंबल के कारण दोनों में विवाद छिड़ गया। महाराष्ट्रिक ने राजकुल में शिकायत की। लाटवासी को राजकुल में बुलाया। उसने कहा—यदि कंबल महाराष्ट्रिक का है तो उसे पूछा जाए कि इस कंबल की फलियां कितनी हैं ? महाराष्ट्रिक कंबल की फलियां नहीं बता सका। लाटवासी ने संख्या बता दी। महाराष्ट्रिक पराजित हो गया। राजकुल से बाहर आकर लाटवासी ने महाराष्ट्रिक को बुलाकर उसका कंबल सौंप दिया। उसने कहा—मित्र ! तुमने पहले पूछा था कि लाटदेश के मायावी कैसे होते हैं ? अब तुम समझ गये कि वे कैसे होते हैं। __ (गा. १७००, १७०१ टी. प. ६६, ७०) ५७. मूलदेव की अनुशासना
एक राजा था। वह स्वयं के पश्चात् राज्य का क्या होगा, इस चिंता से निरपेक्ष था। उसके राज्य में मूलदेव नाम का चोर था। एक बार आरक्षकों ने उसे चोरी के अपराध में पकड़कर राजा के समक्ष उपस्थित किया। राजा ने चोर समझकर उसके वध की आज्ञा दे दी। राजा तत्काल अपने निवास स्थान पर आया और सहसा मृत्यु को प्राप्त हो गया। पीछे उसने
न नहीं बनाया था। इसलिए 'राजा मर गया', इस रहस्य को छुपाया गया। इसे केवल दो ही व्यक्ति जानते थे—वैद्य और अमात्य । राजा निःसन्तान था। अतः राजा की खोज में एक अश्व की पूजा कर उसको नगर के तिराहे, चौराहे तथा अन्य चौकों में घुमाया गया। राज्य कर्मचारी इसी चिन्ता में थे कि राजा के लक्षण वाला पुरुष हमे कैसे मिले। वध-स्थान की ओर ले जाया जाता हुआ मूलदेव उसी रास्त्रे से गुजर रहा था। अश्व ने मूलदेव के पास जाकर अपनी पीठ नीची की। उसे लेकर राज्यकर्मचारी वहां आये, जहां मृत राजा का शव एक पर्दे के पीछे रखा हुआ था। उस पर्दे के पीछे वैद्य और अमात्य बैठे हुए थे। उन दोनों ने मृत राजा के हाथ को ऊपर उठाकर हिलाया और बोले-राजा बोल नहीं सकते अतः अपना हाथ हिलाकर यह अनुमति दे रहे हैं कि मूलदेव का राजा के रूप में अभिषेक किया जाए। मूलदेव राजा बन गया।
कुछ सामंत इस घटना को असाधारण मानकर राजा का पराभव करने लगे। वे राजा के योग्य विनय-व्यवहार नहीं करते, तब मूलदेव ने सोचा कि ये मुझे मूर्ख मानकर मेरा पराभव कर रहे हैं। आज तो ये केवल मूर्ख मान रहे है, भविष्य में स्वयं मेरे पर आरोप लगाकर राज्यच्युत भी कर सकते हैं। मुझे इन पर अनुशासन करना चाहिए।
। दूसरे दिन राजा मूलदेव अपने सिर पर तिनकों के तीक्ष्ण अग्रभानों को रखकर सभा-मंडप में आ बैठा। वे सामन्त आए और राजा की मूर्खता की परस्पर कानाफूसी करने लगे। उन्होंने कहा-देखो, यह अभी भी चोरी की आदत नहीं छोड़ रहा है, अन्यथा मुकुट में तृण शूक लगाने वाले ऐसे व्यक्ति का ऐसे सभा-मंडप में क्या काम ! निश्चित ही यह तृणघरों में चोरी करने गया है और वहां तिनके सिर पर लगे हैं। यह बात मूलदेव ने सुन ली। वह अत्यन्त रुष्ट होकर बोला है कोई मेरी चिन्ता करनेवाला, जो इन सामन्तों को दण्डित करे। इतना कहते ही उसके पुण्य-प्रभाव से राज्य देवता से अधिष्ठित, चित्रगत प्रतिहार, जिनके हाथ में तीखी तलवारें थीं, प्रकट हुए और कुछेक सामन्तों के सिर काट डाले। शेष सामन्तों ने राजा के समक्ष आकर प्रणत होकर आज्ञानुसार चलने का वादा किया। (गा. १८६५, १८६६ टी.प.३२)
८८. संरक्षक अच्छा हो
एक वणिक् था। उसके घर में मृत्यु-दायक रोग का प्रसार हुआ। सारे सदस्य उसकी चपेट में आ गए। केवल एक लड़की बची। वह सेठ निर्धन था। वह अपनी पुत्री का विवाह करने में समर्थ नहीं था। वह यात्रा पर प्रस्थित हुआ। उसने सोचा, कन्या स्वभावतः अपना संरक्षण करने में समर्थ है। किंतु इतने बड़े घर में एकाकी कन्या को देखकर लोग इसके शील-आचरण पर अंगुली उठायेंगे। यह सोचकर वणिक् अपने मित्र वणिक् के यहां कन्या को छोड़कर देशान्तर चला गया। उस मित्र वणिक् के घर में भी 'मारि' का प्रकोप हुआ और उसका सारा कुटुम्ब मृत्यु का कवल बन गया। वह वणिक् भी मर गया। उसकी एक कन्या मात्र बची। वह उस वणिक् की पुत्री की सखी थी। वह स्वयं का तथा उस वणिक्-कन्या का संरक्षण करने में समर्थ थी। फिर भी वह अपनी विश्वस्तता के लिए सखी को लेकर राजा के पास गई, चरणों में प्रणाम कर बोली-देव ! आप अपनी कन्याओं की रक्षा, पालन-पोषण करते हैं। उसी प्रकार मेरी और मेरी सखी की भी आपको रक्षा करनी है। हम भी आपकी ही कन्याएं हैं। राजा ने संतुष्ट होकर कहा-ठीक है, ऐसा ही होगा। दोनों कन्याओं को
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