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परिशिष्ट-८
गंगा स्नान कर घर लौटा और सेठ के पास गया। सेठ ने उसे बांधकर श्रीघर में जो हानि हुई थी, उसका मूल्य उससे वसूला और उसे भंडारी के काम से मुक्त कर दिया । (गा. १६१४ टी. प. ५५)
८३. श्रीघर का रक्षक
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एक सेठ ने श्रीघर की रक्षा के लिए एक व्यक्ति की नियुक्ति की। एक बार उसने गंगायात्रा पर निकले एक सार्थवाह को देखा। वह भी गंगा - यात्रा करना चाहता था । उसने श्रीघर के स्वामी को पूछा अथवा अपने स्थान पर एक विश्वस्त व्यक्ति की व्यवस्था कर वह गंगा-यात्रा पर निकल पड़ा। गंगा स्नान कर वह लौटा। सेठ को कुछ भी हानि नहीं हुई । सेठ ने उसे पुनः भंडारी के रूप में रख लिया । (गा. १६१४ टी. प. ५५)
८४. संघ - समवाय और आचार्य
एक आचार्य अपने शिष्य परिवार के साथ एक नगर में रह रहे थे। संघ के मुनियों में सचित्त आदि के प्रसंग में विवाद उत्पन्न हो गया। वे किसी निर्णय पर नहीं पहुंच पाए। एक बार उसी नगर में एक बहुश्रुत आचार्य अपने बृहद् शिष्य परिवार के साथ वहां आए। तब नगर वास्तव्य मुनियों ने प्रार्थना की कि आप बहुश्रुत हैं। आप हमारे विवाद का समाधान दें। तब आचार्य ने न्याय विधि से श्रुतोपदेश के आधार पर उनका विवाद समाप्त कर दिया। कुल, गण और संघ ने उसे प्रमाण माना। लोगों ने सोचा, ये आचार्य श्रुत- पारगामी हैं । ये श्रुत से विलग कुछ नहीं कहते, इसलिए इनका कथन प्रमाण है । विवाद की समाप्ति पर लोग आचार्य की आहार आदि के दान से सेवा करने लगे। आचार्य उनके द्वारा दीयमान आहार आदि ग्रहण करने लगे ।
कालान्तर में जब कभी विवाद का प्रसंग आता तब आचार्य एक पक्ष की ओर झुककर विवाद निपटाते । तब जो व्यक्ति उन्हें आहारादि नहीं देते, वे आचार्य के प्रत्यनीक माने जाते। वे आचार्य पर पक्षपात का आरोप लगाते । तब उन लोगों ने सोचा, ऐसा कौन दूसरा गीतार्थ गुरु हो जो पक्षपात से शून्य हो और न्याय से विवाद शान्त करे। इसके लिए उन्होंने संघ समवाय की ओर से घोषणा करवायी कि ऐसे गीतार्थ मुनि की यहां प्रयोजनीयता है। यह घोषणा सुनकर एक अतिथि आचार्य जो सूत्र और अर्थ — दोनों में निपुण थे, वहां आये ।
जैन परम्परा में यह स्थिर तथ्य है कि संघसमवाय का प्रयोजन उपस्थित होने पर धूलिधूसरित पैरों वाला भी जैन मुनि सभी कार्य को गौण कर संघ कार्य के लिए उपस्थित हो जाए। यदि वह प्रमाद करता है तो वह प्रायश्चित्त का भागी होता है। उसे कुलसमवाय, गणसमवाय और संघसमवाय के कार्य को प्रधानता देनी होती है। वह अतिथि आचार्य वहां आकर स्थिति का पूरा अध्ययन करे और सूत्र में निर्दिष्ट विधि से कलह का निवारण करे ।
आंगतुक अथिति आचार्य ने विवाद का उचित निपटारा कर दिया ।
(गा. १६५०-६० टी. प. ६२-६४ )
८५. जूते पहने पैर ने मारा है
एक व्यक्ति जूते पहनकर जा रहा था। उसने दूसरे व्यक्ति को पैर से आहत किया । आहत व्यक्ति ने राजदरबार में जाकर शिकायत की। राजपुरुषों ने उसे बुलाया और पूछा- क्या तुमने इस पर प्रहार किया है ? उसने कहा मैंने इस पर प्रहार नहीं किया। मेरे जूते पहने हुए पैर ने प्रहार किया था । (गा. १६६८ टी. प. ६६ )
८६. लाट देशवासी की माया
लाट देश का एक व्यापारी गाड़ी लेकर एक गांव में प्रवेश कर रहा था। बीच में ही महाराष्ट्र का एक व्यापारी मिल गया। उसने लाट देशवासी से पूछा - लाटवासी कैसे मायावी होते हैं ? उसने कहा - बाद में बता दूंगा। दोनों मार्ग में चल रहे थे। जब ठंड कम हुई तब महाराष्ट्रवासी ने अपनी कंबल गाड़ी पर रख दी। लाटवासी ने उस कंबल की फलियां गिन लीं। नगर आ जाने पर महाराष्ट्रिक ने गाड़ी से अपना कंबल लेना चाहा। लाटवासी ने कहा – अरे ! तुम मेरा कंबल क्यों
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