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________________ परिशिष्ट-१६ दृष्टिवाद के विकीर्ण तथ्य 'पूर्व' ज्ञान के अक्षय भण्डार थे, लेकिन संहनन, धृति और स्मृति के ह्रास से धीरे-धीरे लुप्त होने लगे। इनका लोप देखकर इनकी सारभूत बातों को सुरक्षित रखने के लिए आचार्यों ने दृष्टिवाद से अनेक ग्रन्थों का निर्वृहण किया, जिनका उल्लेख हमें अनेक स्थानों पर मिलता है। पूर्वो से सूत्र-रचना का निर्वृहण शय्यंभव ने दशवैकालिक की रचना से प्रारम्भ किया। यह वीर-निर्वाण के ५० वर्ष बाद की रचना है। इसके बाद व्यवहार, बृहत्कल्प आदि अनेक ग्रन्थ निर्मूढ हुए। यह एक खोज और संकलन करने का विषय है कि दृष्टिवाद का उल्लेख कहां किस रूप में मिलता है। जैसे—'दशा-श्रुतस्कन्ध नियुक्ति में कहा है कि छठे और आठवें पूर्व में 'आ' उपसर्ग का युक्तिपूर्वक विवेचन है। 'अंगविज्जा' जैसा विशालकाय ग्रन्थ पूर्वो से उद्धृत है। आचार्य महाप्रज्ञ के संकेतानुसार हमने व्यवहार भाष्य तथा उसकी वृत्ति में प्राप्त दृष्टिवाद के विकीर्ण तथ्यों का संकलन किया है। ये तथ्य विभिन्न परंपराओं के स्पष्ट निदर्शन हैं। नौ पूर्वी कौन ? ततश्चतुर्दशपूर्विणो, दशपूर्विणो, नवपूर्विणश्च इहासतां नवपूर्विणः न परिपूर्णनवपूर्वधराः किंतु नवमस्य पूर्वस्य यत् तृतीयमाचारनामकं वस्तु तावन्मात्रधारिणोपि नवपूर्विणः । (गा. ४०३ टी. प. ८०) निशीथ का निर्वृहण नौवें पूर्व से निसीध नवमा पुव्वा, पच्चक्खाणस्स ततियवत्थूओ। आयारनामधेज्जा, वीसतिमे पाहुडच्छेदा ।। प्रत्याख्यानस्याभिधायकं नवमं पूर्वं प्रत्याख्याननामकं तस्मात्, तत्रापि तृतीयादाचारनामधेयाद्वस्तुनस्तत्रापि विंशतिःतमात् प्राभृतछेदान्निशीथमध्ययनं सिद्धम् । (गा. ४३५ टी. प. ८८) प्रायश्चित्तदाता कौन-कौन ? चतुर्दशपूर्वधरास्त्रयोदशपूर्वधरा यावदभिन्नदशपूर्वधरा जिनोपदिष्टैः शास्त्रैर्जिना इव चतुगविकल्पतः प्रायश्चित्तप्रदानेन प्राणिनोऽपराधमलिनान् शोधयंति । (गा. ४४३ टी. प. ६१) चतुर्दशपूर्वधर अन्तर्गत भावों के ज्ञाता कैसे ? नालीय परूवणता, जह तीय गतो उ नज्जते कालो । तध पुव्वधरा भावं, जाणंति विसुज्झए जेणं ।। नालिकया यथोदकसंगलनेन दिवसस्य रात्रेर्वा गतोऽतीतो वाऽवशिष्टो वा कालो ज्ञायते, यथा एतावद् दिवसस्य रात्रेर्वा गतमेतावत्तिष्ठति तथा पूर्वधरा अपि चतुर्दशपूर्वधरादयः आलोचयतां भावमभिप्रायं दुरूपलक्षमप्यागमबलतः सम्यग् जानंति, ज्ञाते च भावे यो येन प्रायश्चित्तेन शुध्यति, तस्मै तत् चतुर्भगिकविकल्पतो जिना इव प्रयच्छंतीति। (गा. ४४४ टी. प. ६१) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002531
Book TitleAgam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya
Original Sutra AuthorSanghdas Gani
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages860
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vyavahara
File Size14 MB
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