________________
परिशिष्ट-८
थी और वह शकट अन्यान्य सभी शकटों से आगे था। अन्य शकटों में बैठे तरुण अहीर युवकों ने सोचा, शकट को आगे लेकर लड़की को देखें। वे अपने-अपने शकटों को विषम मार्ग से आगे ले जाने लगे । विषम मार्ग के कारण उनके शकट टूट गए। तब उन युवकों ने उस लड़की का नाम 'अशकट' रख दिया। वे उसके पिता को 'अशकट पिता' कहने लगे । अहीर पिता ने यह सुना। उसका मन वैराग्य से अनुरंजित हो गया। वह अपनी पुत्री का एक अहीर तरुण से विवाह कर स्वयं प्रव्रजित हो गया। वह आगम का अध्ययन करने लगा। उत्तराध्ययन सूत्र के तीसरे अध्ययन 'चाउरंगिजं' तक पढ़ा। जब उसने चौथा अध्ययन 'असंखयं' प्रारंभ किया तब पूर्वबद्ध ज्ञानान्तराय कर्म का विपाकोदय हुआ । अब उसे पाठ याद नहीं हो पा रहा था। अनेक दिन बीते । स्थिति में कोई अन्तर नहीं आया। उसने आचार्य से पूछा । आचार्य बोले- 'तुम
- की तपस्या करो और निरंतर आचाम्ल करते रहो ।' यह तप करने लगा। बारह वर्षों के इस क्रम में वह मात्र बारह श्लोक ही सीख पाया। उसका ज्ञानान्तराय कर्म जब क्षीण हुआ तब वह बहुश्रुत हो गया। (गा. ६३ टी. प. २५, २६) ६. विद्यादाता का नाम मत छुपाओ
[ १२७
एक गांव में एक नापित रहता था । वह अनेक विद्याओं का ज्ञाता था । विद्या के प्रभाव से उसका 'क्षुरप्रभांड' अधर आकाश में स्थिर हो जाता था। एक परिव्राजक उस विद्या को हस्तगत करना चाहता था। वह नापित की सेवा में रहा और विविध प्रकार से उसे प्रसन्न कर वह विद्या प्राप्त की। अब वह अपने विद्याबल से अपने त्रिदंड को आकाश में स्थिर रखने लगा। इस आश्चर्य से बड़े-बड़े लोग उस परिव्राजक की पूजा करने लगे। एक बार राजा ने पूछा-भगवन् ! क्या यह आपका विद्यातिशय है या तप का अतिशय है ? उसने कहा—यह विद्या का अतिशय है। राजा ने पुनः पूछा- आपने यह विद्या किससे प्राप्त की ? परिव्राजक बोला- मैं हिमालय में साधना के लिए रहा। वहां मैंने एक फलाहारी तपस्वी ऋषि की सेवा की और उनसे यह विद्या प्राप्त की । परिव्राजक के इतना कहते ही आकाशस्थित वह त्रिदंड भूमि पर आ गिरा । (गा. ६३ टी. प. २६)
१०. सुलसा की धार्मिक दृढ़ता
राजगृह नगरी में सुलसा श्राविका रहती थी। वह सम्यक्त्व में सुदृढ़ थी। एक बार अंबड़ राजगृह की ओर जा रहा था । अनेक भव्यजन को सम्यक्त्व में सुदृढ़ करने की दृष्टि से भगवान् ने अंबड से कहा – तुम राजगृह जा रहे हो । सुलसा धर्म-जागरणा के विषय में पूछना। अंबड़ ने सोचा - पुण्यवती है सुलसा, जिसको भगवान भी पूछते हैं। अंबड राजगृह आया । सुलसा की परीक्षा के लिए वह उसके घर भिक्षा के लिए गया । भिक्षा नहीं मिली। अंबड ने अनेक रूप बनाए। फिर भी सुलसा ने उसको आदर-सम्मान नहीं दिया। वह उसके ऐश्वर्य या चमत्कारों से संमूढ नहीं बनी। (गा. ६४ टी. प. २७)
११. श्रेणिक की सम्यक्त्व - दृढ़ता
राजगृह नगर में राजा श्रेणिक राज्य करता था। एक बार इन्द्र ने अपने देव-परिषद् में श्रेणिक के सम्यक्त्व - धार्मिक दृढ़ता की प्रशंसा की। एक देवता ने इन्द्र की बात पर विश्वास नहीं किया। वह श्रेणिक की परीक्षा करने के लिए मुनि का वेश बना, एक तालाब पर मछलियां पकड़ने बैठा । श्रेणिक उस ओर से निकला, उसने भिक्षु को मछलियां पकड़ते देखकर कहा— अरे! ऐसा मत करो।
दूसरी बार वही देव एक गर्भवती साध्वी का रूप बनाकर मार्ग में बैठ गया । श्रेणिक ने देखा और साध्वी को अपने अन्तःपुर के एक कमरे में ले गया और वहां प्रसूतिकर्म संपन्न कराया। यह सारी वार्ता अत्यन्त गुप्त रखी । राजा स्वयं उस कार्य में संलग्न रहा। उसकी प्रवचन के प्रति श्रद्धा में न्यूनता नहीं आई। तब देव ने साध्वी का रूप छोड़कर अपने मूल रूप में राजा के समक्ष आकर कहा- राजन् ! सफल है तुम्हारा जन्म और जीवन जिन-प्रवचन पर तुम्हारी यह दृढ़ भक्ति सराहनीय है। (गा. ६४ टी. प. २७ )
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org