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परिशिष्ट-र
१२. अन्तर्शल्य और अश्व
एक राजा था। उसके पास सर्वलक्षणयुक्त एक अश्व था। वह दौड़ने और कूदने में समर्थ था। उस अश्व के कारण राजा अजेय था। राजा अपने सामंत-राजाओं पर अनुशासन करता था। एक बार सामंत राजाओं ने अपनी-अपनी सभा में सभासदों से कहा—क्या कोई ऐसा व्यक्ति है जो उस अश्व को चुराकर ले आए ? सभी ने कहा-वह अश्व एक पिंजरे में रहता है। प्रतिपल उसकी निगरानी के लिए पुरुष तैनात रहता है। हवा भी उस तक नहीं पहुंच पाती। इतने में ही एक सभासद् ने कहा--'यदि आप कहें तो मैं उस अश्व को मार सकता हूं, परन्तु उसका अपहरण नहीं कर सकता। राजा बोला-वह अश्व हमारा भी न हो और उसका भी न रहे। जाओ, तम उसका वध कर दो। वह व्यक्ति वहां गया। एक गुप्त स्थान में छुप गया। एक चिकने ईषिका के अग्रभाग में कांटे की अणी को पिरोकर बच्चों के छोटे धनुष्य पर बाण चढ़ा, अश्व की ओर फेंका। अश्व के शरीर पर बाण लगा और बाण नीचे गिर पड़ा। वह सूक्ष्म कंटक (शल्य) अश्व के शरीर में प्रविष्ट हो गया। उरा अव्यक्त शल्य के प्रभाव से अश्व सूखने लगा। उपचार किए गए। खाने-पीने की भी व्यवस्था में सुधार किया, पर अश्व दिन-प्रतिदिन कमजोर होता गया। अश्व-वैद्य को बुलाया गया। उसने अश्व की बाह्य स्थिति का निरीक्षण कर सोचा, इसे कोई रोग नहीं है। अवश्य ही इसके शरीर के भीतर कोई अव्यक्त शल्य है। तत्काल उसने कर्मकरों से कहकर उस अश्व के पूरे शरीर पर गीली मिट्टी का लेप करवाया। वैद्य वहीं खड़ा रहा। अश्व के शरीर के जिस भाग में वह मिट्टी का लेप पहले सूखा, वैद्य ने उस अवयव को चीर कर उस सूक्ष्म शल्य को निकाल दिया। अश्व स्वस्थ हो गया।
(गा. ३२१ टी. प. ४४) १३. रोग को छुपाओ मत
एक तापस का नाम था कुंचिक। एक दिन वह 'फलों के लिए जंगल में गया। रास्ते में एक नदी थी। उसने चलते-चलते नदी के तट पर एक मृत मत्स्य को देखा। वह जन-शून्य स्थान था। उसने उस मत्स्य को पकाया और खा लिया। मत्स्य का मांस पचा नहीं। वह अजीर्ण रोग से आक्रान्त हो गया। वह वैद्य के पास गया। वैद्य ने पूछा-तुमने क्या खाया था, जिससे अजीर्ण हुआ है। तापस ने कहा-फलों के अतिरिक्त मैंने कुछ भी नहीं खाया। वैद्य बोला-कंद, फल आदि खाने से तुम्हारा शरीर कृश हो गया है, इसलिए तुम घृतपान करो। उसने खूब घी पिया। वह और अधिक बीमार हो गया। उसने पुनः वैद्य को पूछा। वैद्य ने कहा-सही-सही बताओ, तुमने उस दिन क्या खाया था ? तब तापस बोला—मैंने एक मत्स्य खाया था। तब वैद्य ने उसे संशोधन, वमन, विरेचन आदि चिकित्सा-विधियों से स्वस्थ कर दिया।
(गा. ३२३ टी. प. ४५) १४. छुपाने से हानि
दो राजाओं के मध्य युद्ध चल रहा था। एक राजा का योद्धा अत्यन्त शूरवीर होने के कारण राजा को प्रिय था। उसके अनेक तीर लगे और उसका शरीर अनेक शल्यों से भर गया। वैद्य उन शल्यों को निकालने लगा। उस समय उस योद्धा को अत्यंत पीड़ा का संवेदन हुआ। उसने एक अंग में शल्य रहने पर भी वैद्य को नहीं बताया। उन शल्यों के कारण वह दुर्बल होता गया। फिर वैद्य के पूछने पर उसने मूल बात बताई। वैद्य ने उस अंग से भी शल्य निकाल दिया। वह बलवान हो गया।
(गा. ३२३ टी. प. ४६) १५. दो मालाकार
एक गांव में दो मालाकार रहते थे। कौमुदी-महोत्सव को निकट जानकर दोनों ने उद्यान से पुष्पों का संचय किया। एक मालाकार ने सारे फूलों को सजाकर बाजार में रखा। दूसरा फूलों को यों ही टोकरी में रखकर बाजार में बैठ गया। जिसने फूल सजाकर खुले रूप में रखे थे, उसे प्रचुर लाभ हुआ। सारे फूल बिक गये। दूसरे मालाकार के सारे फूल यों ही
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