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________________ परिशिष्ट [१२६ पड़े रहे। कोई ग्राहक नहीं आया। वह हानि में रहा। (गा. ३२३ टी. प. ४६) १६. पांच वणिक् और पंद्रह गधे एक निगम में पांच वणिक भागीदारी में व्यापार करते थे। उन पांचों का समान विभाग था। उनके पास पन्द्रह गधे हो गए। वे सभी गधे भिन्न-भिन्न भार-वहन करने में समर्थ थे। उनके भारवहन की क्षमता के आधार पर उनके मूल्य में भी अन्तर आ गया। पांचों व्यापारी उनका समविभाग नहीं कर पा रहे थे। वे आपस में झगड़ने लगे। कलह बढ़ता गया। समाधान नहीं हो सका। वे एक बुद्धिमान व्यक्ति के पास समाधान पाने गए। उसने गधों का मूल्य पूछा। उन व्यापारियों ने पन्द्रह गधों का सही-सही मूल्य बताया। उस बुद्धिमान व्यक्ति ने कहा—अब मैं इस कलह का निपटारा कर दूंगा। कलह मत करो। पांचों व्यापारी आश्वस्त हुए। उसने साठ रुपयों के मूल्य वाला एक गधा एक व्यापारी को दिया, दूसरे को तीस-तीस रुपयों के मूल्य वाले दो गधे दिए, तीसरे को बीस-बीस रुपयों के मूल्य वाले तीन गधे दिए, चौथे व्यापारी को पन्द्रह-पन्द्रह रुपयों के मूल्य वाले चार गधे दिए और पांचवें व्यापारी को बारह-बारह रुपयों के मूल्य वाले पांच गधे दे दिए। सभी व्यापारियों को समान लाभ हो गया। वे संतुष्ट होकर चले गए। (गा. ३२६, ३३० टी. प. ४६) १७. समय पर दंड का औचित्य एक राजा था। उसने अपने प्रत्यंत-सीमावर्ती राजा का अवरोध करने के लिए सीमा के तीन नगरों में तीन रक्षकों को नियुक्त किया। उसने कहा--जाओ, नगरों की सुरक्षा करो। तीनों अपने-अपने नगरों में जा स्थित हो गए। प्रत्यंत नृप ने उन पर आक्रमण किया। उन रक्षकों की रशद पूरी हो गई। तब उन्होंने अपने राज्य के कोठागार से तीस-तीस कुंभ धान्य लिया। फिर आक्रमणकारी प्रत्यंत नृप को जीत कर वे तीनों अपने स्वामी के पास आए और विस्तार से पूरा वृत्तान्त सुनाया। जीत का वृत्तान्त सुनकर राजा परम प्रसन्न हुआ। रक्षकों ने आगे कहा- 'राजन् ! आपके कार्य को संपादित करने के लिए हमने कोठागार में से तीस-तीस कुंभ धान्य के निकाले थे।' राजा ने सुना, सोचा कि यदि मैं इन्हें इस कार्य के लिए अभी दंडित नहीं करूंगा तो मेरे अन्यान्य प्रयोजन पर भी वे ऐसा ही करेंगे और व्यर्थ ही मेरा कोठागार खाली होता जाएगा तथा दूसरों को भी ऐसा करने में भय नहीं रहेगा। यह सोचकर राजा ने कहा- तुमने मेरा कार्य सफलतापूर्वक संपादित किया है। तीनों को मैं साधुवाद देता हूँ। किन्तु तुम मेरे यहां आजीविका कर रहे हो, उसके लिए तुम्हें मासिक वृत्ति भी मिल रही है, तो फिर तुमने कोठागार से धान्य क्यों लिया ? यह तुम्हारा प्रमाद है। तुम पर यह दंड है कि सारा धान्य पुनः कोठागार में पहुंचाओ। तीनों रक्षक अवाक रह गए। राजा ने कहा-तुम्हारी सफलता पर मैं प्रसन्न हूं, कोठागार से जो तुमने तीस-तीस कुंभ धान्य निकाला था उसके लिए स्वअर्जित दस-दस कुंभ धान्य उन कोठागारों में पहुंचाओ। यह प्रमाद का दंड है। शेष बीस-बीस कुंभ का मैं तुम्हारे पर अनुग्रह करता हूं। उसके ऋण से मुक्त करता हूँ। (गा. ३३३, ३३४ टी. प. ५१) १८. गंजे पनवाड़ी की बुद्धिमत्ता एक पनवाड़ी पान की दुकान पर बैठता था। वह गंजा था। एक बार एक सैनिक का पुत्र पान लेने आया और बोला—अरे ! गंजे पनवाड़ी ! एक पान दे। दुकानदार को गुस्सा आ गया। उसने पान नहीं दिया, तब सैनिक-पुत्र ने कुपित होकर गंजे के सिर पर 'टकोरा' मारा। दुकानदार ने सोचा-यदि मैं इसके साथ झगडूंगा तो यह मुझ पर शत्रुता का भाव रखकर मुझे मार डालेगा। इसलिए किसी दूसरे उपाय से ही मुझे प्रतिशोध लेना चाहिए। यह सोचकर पनवाड़ी दुकान से नीचे उतरा और उस सैनिक-पुत्र से हाथ मिलाया, वस्त्र-युगल भेंट स्वरूप दिए, पैरों में गिरा और प्रचुर पान देकर नमस्कार किया। सैनिक-पुत्र ने उससे पूछा-'अरे ! यह क्या ? मैंने सिर पर 'टकोरा' मारा, तुम कुपित नहीं हुए, प्रत्युत मेरी पूजा कर रहे हो ? मेरे चरणों में गिर रहे हो ?' पनवाड़ी बोला—'हमारे क्षेत्र में सभी गंजे व्यक्तियों का यही आचार-व्यवहार है।' यह सुनकर सैनिक पुत्र ने सोचा--अच्छा, मुझे जीविका का उपाय प्राप्त हो गया। अब मैं ऐसे व्यक्ति के सिर पर 'टकोरा' मारूंगा कि वह मुझे धनवान बना दे, मुझे इस दरिद्रता की स्थिति से उबार दे।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002531
Book TitleAgam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya
Original Sutra AuthorSanghdas Gani
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages860
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vyavahara
File Size14 MB
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