SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 752
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परिशिष्ट-८ [१५७ पृथक् लाया जाता है। मैं दृढ़ शकट या कुंडी के समान हूं। शरीर का अप्रतिकर्म करता हुआ भी मैं योगसंधान करने में समर्थ हूं। इसलिए मुझे विशेष आहार की आवश्यकता नहीं होती। (गा. २६८५-२६६२ टी. प. ४३, ४४) ११४. उस समय की परिवाजिकाएं एक गांव में पति-पली आराम से रह रहे थे। एक बार पत्नी के मन में यह संदेह हुआ कि मैं अपने पति के लिए अप्रीतिकर हो गई हूं। पति मुझे नहीं चाहता। यह सोचकर वह आर्यिका के पास प्रव्रजित हो गई । उसके शरीर का लावण्य अद्भुत था। वह भिक्षा के लिए घूमती । एक बार पूर्व पति ने उसे देख लिया। वह उसमें लुब्ध हो गया। वह साध्वी अकेली नहीं थी। उसके साथ अन्य साध्वियां भी रहती थीं, इसलिए पति को एकान्त में अपनी पत्नी-साध्वी से बातचीत करने का अवसर नहीं मिलता था। तब उसने एक परिव्राजिका से परिचय किया। उसकी दान, सन्मान आदि से आराधना की। परिव्राजिका ने पूछा- बताओ, मैं तुम्हारा कौन-सा काम कर सकती हूं ? उसने कहा-अमुक साध्वी को तुम इस प्रकार प्रभावित करो कि वह पुनः गृहस्थी में आ जाए। एक दिन वह परिव्राजिका उस साध्वी के पास आकर बोली–मैं भी दीक्षित होना चाहती हूँ। आप मुझे प्रव्रजित करें। वह प्रव्रजित हो गई। एक दिन पाक्षिक के उपलक्ष में सभी आर्यिकाएं चैत्यवंदन के लिए गईं। उस शैक्ष साध्वी ने कहा—आर्य! मैंने स्वजनों से गुप्त रूप से दीक्षा ली है। वे यदि मुझे देखेंगे तो मुझे घर ले जाएंगे। इसलिए आप सब जाएं। मैं उपाश्रय की रक्षा में यहीं रहूंगी। तब एक साध्वी को वहीं छोड़कर सभी आर्यिकाएं चैत्यवंदन के लिए चली गईं। सबके जाने के पश्चात् उस परिव्राजिका साध्वी ने उस तरुण साध्वी से कहा-पहले तुम्हारा पति तुमसे वितृष्ण हो गया था। अब उसके मन में तुम्हारे प्रति अत्यधिक स्नेह उभरा है और वह तुम्हें पाने के लिए उत्कंठित है। ऐसा कहकर वह उसे प्रव्रज्या से च्युत कर देती है। (गा. २८४८, २८६२, २८६३ टी. प. ३,५,६) ११५. जम्बूवृक्षवासी और वटवृक्षवासी एक नगर में दो गृहस्थों के घर दो भिन्न-भिन्न वृक्ष थे। एक के घर में वटवृक्ष और दूसके के घर में जम्बूवृक्ष था। एकदा एक आचार्य अपने शिष्य परिवार के साथ वहां आए और वटवृक्षवासी गृहस्थ को शय्यातर का लाभ दिया। दोनों गृहस्थों ने अपना-अपना दूसरा मकान बनाया। उन दोनों मकानों में कापौत रहने लगे। दोनों ने उसे अमंगल माना। उन्होंने नैमित्तिक से पूछा कि इस अमंगल का निवारण कैसे हो सकता है ? नैमित्तिक ने कहा—वटवृक्षवासी जम्बूवृक्षवासी के घर में रहने लग जाए और जम्बूवृक्षवासी वटवृक्षवासी के घर में रहने लग जाए तो दोनों के अमंगल का निवारण हो जाएगा। फिर कुछ दिन वहां रहकर अपने-अपने मूल घर में चले जाएं। उन दोनों ने वैसे ही किया। अब वे सुखपूर्वक रहने लगे। (गा. २८८०, २८८१ टी. प. ६) ११६. कोशलदेश के आचार्य कोशलदेश के एक आचार्य अपने सद् अनुष्ठान से एक श्राविका को उपशांत कर अपने देश लौट गये। श्राविका एक अन्य गच्छ के आचार्य के पास निष्क्रमण करने के लिए उपस्थित हुई और बोली—आप मुझे प्रव्रजित करें, किन्तु मेरे तो वे ही कोशलदेशवासी आचार्य होंगे। आचार्य ने उसे दीक्षित कर दिया। वह कोशलदेश के आचार्य के पास जाना चाहती थी। आचार्य ने उसका निषेध किया। वह आज्ञा का उल्लंघन कर कोशलदेशवासी आचार्य के पास चली गई। उस कोशलक ने उसे स्वीकार कर लिया। वह नष्ट हो गई। (गा. २६५६, २६५७ टी. प. २४) ११७. राजाज्ञा की अवमानना एक राजा था। उस राज्य में म्लेच्छ सैनिकों का भय था। वे राज्य को नष्ट-भ्रष्ट कर देंगे, इस भय से राजा ने अपने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002531
Book TitleAgam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya
Original Sutra AuthorSanghdas Gani
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages860
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vyavahara
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy