SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्यवहार भाष्य : एक अनुशीलन [ ३६ प्रस्तुत ग्रन्थ में भाष्य और नियुक्ति गाथाएं साथ-साथ प्रकाशित हैं। निर्युक्ति गाथा की पहचान के लिए हमने उनका क्रमांक भाष्य गाथा के अन्त में (नि.) लिखकर किया है। दोनों को सर्वथा पृथक् करना उचित नहीं लगा क्योंकि भाष्यकार मुख्यतः नियुक्ति की ही व्याख्या करते हैं तथा उन्होंने नियुक्ति को अपने ग्रंथ का अंग बना लिया है दोनों को सर्वथा अलग करने से संधित्सु को विषय की असंबद्धता पग-पग पर खलती रहती । भाष्य से नियुक्ति गाथाओं के पृथक्करण के लिए हमने कुछ कसौटियां निर्धारित की हैं। वे इस प्रकार हैं १. जहां कहीं भी ‘एसा भद्दबाहुसामिकता गाहा' ऐसा उल्लेख है, उसे नियुक्ति गाथा माना है क्योंकि नियुक्तिकार भद्रबाहु स्वामी थे। २. जहां कहीं भी व्याख्याकार ने 'इदाणिं निज्जुत्ती' 'इमा सुत्तफासिया' अथवा 'अधुना निर्युक्तिविस्तरः' ऐसा उल्लेख किया है, उनको स्पष्ट रूप से नियुक्ति के रूप में स्वीकार किया है। इस विषय में बृहत्कल्प की टीका में अनेक स्थलों पर विरोधाभास भी मिलता है। वहां एक ही गाथा किसी प्रति में नियुक्ति, किसी में द्वारगाथा, किसी में संग्रहगाथा तथा किसी में भाष्यगाथा के रूप में हैं। मुनि पुण्यविजयजी ने छठे भाग में इन विभेदों का एक चार्ट प्रस्तुत किया है। यह खोज का विषय है कि बृहत्कल्प एवं व्यवहार की टीका में ही यह विभेद क्यों मिलता है, निशीथ में क्यों नहीं? इस प्रश्न के समाधान में यह अनुमान किया जा सकता है कि प्राचीनता की दृष्टि से चूर्णि अधिक प्राचीन है अतः संभव है चूर्णि के समय तक इतना भेद न हुआ विवादास्पद गाथाओं को भी निर्युक्तिगाथा में सम्मिलित किया गया। है 1 । ऐसी ३. निशीथ चूर्णि एवं बृहत्कल्प भाष्य की टीका में अनेक स्थलों पर 'एसा चिरंतणा' 'एसा पुरातणी गाहा' का उल्लेख मिलता है। लेकिन इनके बारे में स्पष्ट रूप से नहीं कहा जा सकता कि ये नियुक्ति गाथाएं ही हैं क्योंकि ये गाथाएं भद्रबाहु से भी प्राचीन हो सकती हैं, जिनका उपयोग स्वयं भद्रबाहु ने अपनी नियुक्ति में किया हो । अनेक स्थलों पर निशीथ चूर्णिकार ने जिस गाथा को भद्रबाहुस्वामीकृत कहा है उसी गाथा को बृहत्कल्प की टीका में मलयगिरि ने पुरातनगाथा कहा है । जैसे निभा ७६२ की गाथा में निशीथ चूर्णि में 'भद्रबाहुकृत' का उल्लेख है । उसी गाथा को बृहत्कल्प (३६६४ ) में टीकाकार ने 'पुरातन गाथा' के रूप में स्वीकार किया है। ऐसे उद्धरणों से स्पष्ट है कि पुरातनी गाथा भद्रबाहुकृत है अतः हमने इन गाथाओं को नियुक्ति गाथा के रूप में स्वीकार किया है। ४. चिरंतण गाथा भद्रबाहु द्वितीय से पूर्व की प्रतीत होती है, क्योंकि निशीथ चूर्णिकार ने एक स्थल पर स्पष्ट उल्लेख किया है कि 'एसा चिरंतणा गाहा, एयाए चिरंतणगाहाए इमा भद्दबाहुसामिकता वक्खाणगाहा' इस उद्धरण से स्पष्ट है कि चिरंतनगाथा भद्रबाहु से प्राचीन है जैसा कि इसके नाम से स्पष्ट है। लेकिन भद्रबाहु ने ऐसी गाथाओं को अपनी नियुक्ति का अंग बना लिया । इन गाथाओं के निर्युक्तिगत होने का एक प्रमाण यह है निभा ३८२ की गाथा चिरंतन गाथा है । ३८३ की गाथा के प्रारम्भ में चूर्णिकार लिखते हैं कि 'इणमेवार्थं भाष्यकारो व्याख्यानयति' इस उद्धरण से स्पष्ट है कि यह चिरंतन गाथा नियुक्ति की होनी चाहिए । ५. आवश्यक, दशवैकालिक आदि नियुक्तियों की सैकड़ों गाथाएं इन तीनों ग्रंथों के भाष्यों में मिलती हैं। इसमें कहीं-कहीं तो स्वयं नियुक्तिकार ने प्रसंगवश अन्य नियुक्तियों की प्रसिद्ध गाथाओं को व्यवहार आदि की नियुक्तियों में प्रयोग किया है। लेकिन अनेक स्थानों पर नियुक्ति की गाथाओं का भाष्यकार ने भी अपने भाष्य को समृद्ध बनाने में उपयोग किया है। निशीथ भाष्य में पिण्डनिर्युक्ति और ओघनियुक्ति की अनेक गाथाएं अक्षरशः उद्धृत हैं। ये गाथाएं भाष्यकार द्वारा उद्धृत की गयी प्रती होती हैं। इसी प्रकार व्यवहार भाष्य में टीकाकार स्पष्ट कहते हैं- 'अथ भाष्यविस्तरः' लेकिन गाथाएं सारी आवश्यकनियुक्ति के अस्वाध्याय प्रकरण की हैं। ये गाथाएं निशीथभाष्य एवं व्यवहारभाष्य दोनों में उद्धृत हैं लेकिन इन गाथाओं में पाठभेद 'बहुत I यह खोज का विषय है कि इतना पाठान्तर लिपिकर्त्ताओं द्वारा हुआ अथवा वाचनाभेद से हुआ? कंठस्थ परम्परा के कारण हुआ या स्वयं नियुक्तिकार, भाष्यकार द्वारा प्रसंगानुसार किया गया? अनेक स्थलों पर यह स्पष्ट नहीं है कि स्वयं नियुक्तिकार ने इन नियुक्तियों का उपयोग किया है अथवा भाष्यकार ने उन्हें उद्धृत किया है। किन्तु जहां भी अन्य नियुक्तियों की गाथाएं हैं, उनका हमने पादटिप्पण में उल्लेख कर दिया है। ६. द्वारगाथाओं तथा संग्रहगाथाओं के बारे में भी स्पष्ट नहीं कहा जा सकता कि ये निर्युक्ति की गाथाएं हैं। क्योंकि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002531
Book TitleAgam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya
Original Sutra AuthorSanghdas Gani
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages860
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vyavahara
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy