________________
३८ ]
निर्युक्तियां लिखीं।' इसके अतिरिक्त गोविंद आचार्यकृत गोविंदनिर्युक्ति का उल्लेख भी मिलता है।' नियुक्तिकार के विषय में विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है। विंटरनित्स, हीरालाल कापड़िया आदि विद्वानों ने चतुर्दशपूर्वधर भद्रबाहु को ही नियुक्तिकार के रूप में स्वीकृत किया है। उनके मत से द्वितीय भद्रबाहु को नियुक्तिकार मानना असंगत है। मुनि पुण्यविजयजी ने अनेक प्रमाणों के आधार पर द्वितीय भद्रबाहु को नियुक्तिकार के रूप में सिद्ध किया है। हमने भद्रबाहु प्रथम को ही नियुक्तिकार के रूप में स्वीकार किया है। किंतु भद्रबाहु द्वितीय ने नियुक्तियों में परिवर्धन किया, यह भी स्वीकृत किया है क्योंकि दशवैकालिक एवं आवश्यक आदि की नियुक्तियों में चूर्णि एवं टीका की गाथा संख्या में काफी अंतर है । भद्रबाहु प्रथम नियुक्तिकार थे इसकी सिद्धि में अनेक हेतु प्रस्तुत किए जा सकते हैं। निर्युक्ति एवं नियुक्तिकार के बारे में विस्तृत विवेचन हम नियुक्तियों के प्रकाश्यमान खंड में करेंगे।
नियुक्ति एवं भाष्य का पृथक्करण
आचार्य भद्रबाहु ने . १० नियुक्तियां लिखने की प्रतिज्ञा की। उनमें ऋषिभाषित एवं सूर्यप्रज्ञप्ति पर लिखी गई नियुक्ति आज अनुपलब्ध है। बाकी की आठ निर्युक्तियों में आवश्यक, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन सूत्रकृतांग एवं दशाश्रुतस्कंध की नियुक्तियां तो स्वतंत्र ग्रंथ के रूप में मिलती हैं किन्तु बृहत्कल्प, व्यवहार एवं निशीथ इन तीनों छेदसूत्रों पर लिखी गई नियुक्तियां वर्तमान में भाष्यों के साथ प्राप्त होती हैं। भाष्यकार ने नियुक्ति को अपने ग्रंथ का अंग बना लिया है अतः भाष्य और नियुक्ति को पृथक् करना अत्यन्त कठिन है । चूर्णिकार एवं टीकाकार ने अनेक स्थलों पर नियुक्ति गाथा का संकेत किया है, इससे यह तो स्पष्ट है कि भाष्य के बाद भी नियुक्ति का स्वतंत्र अस्तित्त्व था। साथ ही चिन्तन का विषय यह भी है कि सभी स्थानों पर व्याख्याकारों ने निर्युक्ति का संकेत क्यों नहीं किया? एक प्रश्न यह भी उपस्थित होता है कि जब आगम ग्रंथ लिपिबद्ध हुए तब तक इन भाष्यमिश्रित नियुक्तियों का स्वतंत्र अस्तित्त्व था या नहीं? आवश्यक नियुक्ति पर भी भाष्य (विशेषावश्यक भाष्य) लिखा गया लेकिन आवश्यक निर्युक्ति का आज स्वतंत्र अस्तित्त्व मिलता है। आगमों पर सर्वप्रथम व्याख्या निर्युक्ति है। अतः यह तो निश्चित है कि किसी समय इन तीनों छेदग्रंथों की नियुक्तियां अपना स्वतंत्र अस्तित्त्व रखती होंगी । भाष्य के साथ सम्मिश्रण होने के बाद उनके पृथक् अस्तित्त्व को जानना कठिन हो गया क्योंकि दोनों की भाषा एवं प्रतिपादन शैली में बहुत समानता है । टीकाकार के समय तक इन तीनों ग्रंथों की नियुक्तियों की स्वतंत्र सत्ता नहीं रही इसका प्रबल साक्ष्य है - बृहत्कल्प की मलयगिरि टीका। बृहत्कल्प की पीठिका में आचार्य मलयगिरि ने स्पष्ट रूप से कहा है कि सूत्रस्पर्शिकनियुक्ति एवं भाष्य दोनों मिलकर एक ग्रंथ हो गए हैं।
चूर्णिकार ने सभी स्थलों पर नियुक्ति गाथा का संकेत नहीं दिया है अतः उनके समक्ष नियुक्तियों का स्वतंत्र अस्तित्त्व था या नहीं, यह खोज का विषय है। फिर भी अनेक स्थलों पर निशीथ चूर्णि में 'एत्थ निज्जुत्तीगाहा' 'एसा भद्दबाहुसामिकता गाहा' आदि का उल्लेख मिलता है। ऐसा अधिक संभव लगता है कि चूर्णिकार के समक्ष कुछ ऐसे कंठस्थपाठी श्रमणों की परम्परा थी, जिनको इन छेदग्रंथों की नियुक्तियां स्वतंत्र रूप से याद थीं। उसी आधार पर उन्होंने अनेक स्थलों पर नियुक्तिगाथा का संकेत किया है।
एक ही भाषा और शैली में लिखे हुए सम्मिश्रित दो ग्रंथों को अलग-अलग करना अत्यन्त कठिन एवं श्रमसाध्य कार्य है पर हमने निर्युक्तिगाथाओं को पृथक् करने का प्रारम्भिक प्रयास किया है । यह दावा नहीं किया जा सकता कि सभी नियुक्त गाथाओं का पृथक्करण ठीक ही हुआ है। पृथक्करण के इस क्रम में कुछ निर्युक्तिगाथाएं छूट सकती हैं तथा कुछ भाष्य की गाथाएं निर्युक्ति में शामिल भी हो सकती हैं। पृथक्करण का यह प्रयास भविष्य में अनुसंधित्सुओं के लिए मार्गदीप अवश्य बनेगा ।
१.
२.
आवनि ८४-८६ ।
बृभा. ५४७३, निभा. ५५७३ ।
३.
A History of canonical literature of the Jains. Page. 172
४. मुनि श्री हजारीमल स्मृतिग्रंथ पृ. ७१८-७१६
व्यवहार भाष्य
५. आवनि. ८४-८६ ।
६. बृभाषी. पृ. २; सूत्रस्पर्शिक नियुक्तिर्भाष्यं चैको ग्रन्थो जातः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org