________________
व्यवहार भाष्य : एक अनुशीलन
[३७
यदि कोई साध्वी सीखे हुए आचारप्रकल्प को प्रमाद से भूल जाती तो उसे जीवनभर प्रवर्तिनी पद नहीं दिया जाता।'
छेदसूत्र जैसे रहस्यमय सूत्र की विस्मृति के कुछ कारण भाष्यकार ने बताए हैं। मलयवती, मगधसेना एवं तरंगवती आदि रोचक कथा साहित्य पढ़ने से आचारप्रकल्प आदि ग्रंथों के परावर्तन का समय नहीं मिलता। इसके अतिरिक्त ज्योतिषज्ञान, निमित्तविद्या, विशिष्टविद्या, मंत्र आदि की साधना तथा निमित्तशास्त्र के अध्ययन में समय अधिक लगाना पड़ता इसलिए आचारप्रकल्प आदि की विस्मृति हो जाती। इस प्रसंग में भाष्यकार ने प्रमादी अजापालक, वैद्य, योद्धा आदि के दृष्टान्त प्रस्तुत किए हैं, जो प्रमाद के कारण अपने व्यवसाय और कला को भूल गए। उस विस्मृति से उन्होंने अपनी आजीविका को खो दिया।
जो साध्वी ग्लान होने पर, ग्लान की सेवा में नियुक्त रहने के कारण, दुर्भिक्ष होने पर, निरंतर भिक्षा में संलग्न रहने के कारण आचारप्रकल्प की विस्मृति कर देती है तो भी उसे गणभार के योग्य मान लिया जाता था क्योंकि यह दर्प या प्रमाद से होने वाली विस्मृति नहीं है। ऐसी साध्वी को गण का भार दिया जा सकता है। बृहत्कल्प और व्यवहार में भेद-अभेद
कुछ पाश्चात्त्य विद्वान् व्यवहार को बृहत्कल्प का पूरक मानते हैं। भाष्यकार ने एक प्रश्न उपस्थित किया है कि बृहत्कल्प एवं व्यवहार दोनों में प्रायश्चित्त का वर्णन है फिर इनमें भिन्नता या विशेषता क्या है? दोनों में अभेद स्थापित करते हुए भाष्यकार कहते हैं-जो अवितथव्यवहारी होता है, वह निश्चित रूप से आचार में स्थित रहता है तथा जो कल्प-आचार में स्थित है, वह नियम से अवितथव्यवहारी होता है अतः दोनों में अविनाभावी संबंध है तथा कल्प और व्यवहार दोनों शब्द एकार्थक हैं।
दोनों में भेद बताते हुए भाष्यकार कहते हैं कि कल्पाध्ययन में मूलगुण एवं उत्तरगुण से सम्बन्धित अतिचारों का वर्णन है तथा व्यवहार में प्रायश्चित्त दान की विधि का वर्णन है। अर्थात् इसमें आभवद् एवं प्रायश्चित्त व्यवहार का वर्णन है।
दूसरा भेद इन दोनों में यह है कि बृहत्कल्प में अविशेष अर्थात्-सामान्य रूप से प्रायश्चित्त का वर्णन है तथा व्यवहार में विशेष रूप से अर्थात्-प्रतिसेवना, संयोजना, आरोपणा एवं प्रतिकुंचना आदि के भेद से विस्तृत रूप से प्रायश्चित्त का वर्णन है।
शब्द भेद होते हुए भी कल्प और व्यवहार अर्थ की दृष्टि से अभिन्न हैं। इन दोनों में अर्थसाम्य को घटित करने के लिए भाष्यकार ने भाषा संबंधी चतुर्भंगी प्रस्तुत की हैशब्द अभेद अर्थ अभेद
जैसे-इंद्र इंद्र। शब्द भेद अर्थ अभेद
जैसे-इंद्र, शक्र आदि शब्द अभेद अर्थ भेद
जैसे-गो। शब्द भेद अर्थ भेद
जैसे-घट, पट आदि। अभिधान का नानात्व होने पर भी अभिधेय एक हो सकता है और अभिधान एक होने पर भी अभिधेय में नानात्व हो सकता है। कल्प और व्यवहार दोनों में व्यञ्जन का नानात्व है पर अर्थ में भेद नहीं है क्योंकि दोनों में प्रायश्चित्त का वर्णन है। प्रायश्चित्त के भेदों तथा प्रायश्चित्ताह पुरुषों का जो उल्लेख कल्प में नहीं है, वह व्यवहार में है इसलिए यह विशेष है। नियुक्तिकार
जैन आगमों के व्याख्या ग्रन्थों में नियुक्ति सबसे प्राचीन पद्यबद्ध रचना है। सूत्र के साथ अर्थ का निर्णय जिसके द्वारा होता है, वह नियुक्ति है। नियुक्तिकार के रूप में आचार्य भद्रबाहु का नाम प्रसिद्ध है। उन्होंने १० ग्रंथों पर
१. व्यभा. २३१४-२२॥ २. व्यभा. २३२०-२१॥ ३. व्यभा. २३२३-२८। ४. व्यभा. २३२७,२३२८। ५. व्यभा. १५२। ६. व्यभा. १५३। ७. 'गो' शब्द भूप, पशु, रश्मि आदि अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है। ८ व्यभा. १५५-५७) ६. आवनि.८।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org