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________________ व्यवहार भाष्य समवाओ में दशाश्रुत को छेदसूत्र में प्रथम स्थान दिया है। चूर्णिकार ने छेदसूत्रों में दशाश्रुतस्कन्ध को प्रमुख रूप से स्वीकार किया है। इसको प्रमुखता देने का संभवतः यही कारण रहा होगा कि इसमें मुनि के लिए आचरणीय एवं अनाचरणीय तथ्यों का क्रमबद्ध वर्णन है। शेष तीन छेदसूत्र इसी के उपजीवी हैं। विंटरनित्स के अनुसार व्यवहार बृहत्कल्प का पूरक है। बृहत्कल्प में प्रायश्चित्त-योग्य कार्यों का निर्देश है तथा व्यवहार उसकी प्रयोग भूमि है। अर्थात् उसमें प्रायश्चित्त निर्दिष्ट हैं। उनके अनुसार निशीथ की रचना अर्वाचीन है। निशीथ में बहुत बड़ा भाग व्यवहार से तथा कुछ भाग प्रथम और द्वितीय चूला से लिया गया है। कुछ आचार्य दशाश्रुत, बृहत्कल्प एवं व्यवहार-इन तीनों को एक श्रुतस्कंध ही मानते हैं तथा कुछ आचार्य दशाश्रुत को एक तथा कल्प और व्यवहार को दूसरे श्रुतस्कंध के रूप में स्वीकृत करते हैं। छेदसूत्र किस अनुयोग में? अनुयोग विशिष्ट व्याख्या पद्धति है। उसके मुख्य चार भेद हैं-१. चरणकरण, २. धर्मकथा, ३. गणित, ४. द्रव्य । आर्यरक्षित से पूर्व अपृथक्त्वानुयोग प्रचलित था। उसमें प्रत्येक आगम के सूत्रों की व्याख्या चरणकरण, धर्म, गणित तथा द्रव्य की दृष्टि से की जाती थी। वह प्रत्येक के लिए सुगम नहीं होती थी। आर्यरक्षित ने इस जटिलता और स्मृतिबल की क्षीणता को देखकर पृथक्त्वानुयोग का प्रवर्तन कर दिया। उन्होंने विषयगत वर्गीकरण के आधार पर आगमों को चार अनुयोगों में बांटा-१. चरणकरणानुयोग, २. धर्मकथानुयोग, ३. गणितानुयोग, ४. द्रव्यानुयोग। आचार प्रधान होने के कारण छेदसूत्रों का समावेश चरणकरणानुयोग में किया गया। इस संदर्भ में निशीथ चूर्णि में शिष्य आचार्य से प्रश्न पूछता है कि निशीथ आचारांग की पंचमचूला होने के कारण उसका समावेश अंग में है तथा वह चरणकरणानुयोग के अन्तर्गत है, लेकिन छेद सूत्र अंगबाह्य हैं वे किस अनुयोग के अन्तर्गत होंगे? निशीथ भाष्यकार ने छेदसूत्रों का समावेश चरणकरणानुयोग के अन्तर्गत रखा है।' साध्वियों को छेदसूत्र की वाचना आर्यरक्षित अन्तिम आगमव्यवहारी थे। आगमव्यवहारी अपने ज्ञानबल से जान लेते थे कि इस संयती को छेदसूत्र की वाचना देने में दोषापत्ति नहीं है तो वे उसे छेदसूत्रों की वाचना देते थे। आर्यरक्षित के बाद आगमव्यवहारी नहीं रहे। साध्वियों की मनः स्थिति को स्पष्ट रूप से जानने का कोई अतिशायी ज्ञान नहीं रहा। तब स्थविरों ने सोचा कि छेदसूत्र के अध्ययन से साध्वियां संयम से च्युत न हो जाएं, इस दृष्टि से उनको वाचना देना बंद कर दिया। प्रश्न उपस्थित हुआ कि फिर साध्वियां शोधि कैसे कर पाएंगी? इसके उत्तर में ग्रंथकार कहते हैं- आचार्य आर्यरक्षित के समय तक साध्वियां साध्वियों से प्रायश्चित्त ग्रहण करती थीं और प्रायश्चित्तदात्री साध्वियों के अभाव में श्रमणों के पास भी आलोचना कर प्रायश्चित्त ग्रहण करती थीं। इसी प्रकार श्रमण भी स्वपक्ष अर्थात् श्रमणों से अथवा परपक्ष अर्थात् श्रमणियों के पास आलोचना कर प्रायश्चित्त ग्रहण करते थे। आर्यरक्षित के पश्चात् श्रमणियां श्रमणों के पास ही आलोचना करने लगीं। आर्यरक्षित के समय में भी यह परम्परा थी कि यदि साध्वियों को मूलगुण संबंधी दोषों की आलोचना करनी होती तो वे स्वयं साध्वियों के पास ही उनकी आलोचना करतीं। योग्य साध्वी के अभाव में छेदग्रंथधर स्थविर के पास आलोचना करतीं। १. सम-२६/१। २. दश्रुचू. पृ. २ : इमं पुण छेदसुत्तपमुहसुत्तं । 3. A His. of P. 446 ४. पंकभा. २५। ५. निभा.६१६०: जं च महाकप्पसुयं, जाणिय सेसाई छेदसुत्ताई। चरणकरणाणुओगो, कालियछेदोवगयाइ या। व्यभा. २३६५। ७. व्यभा. २३६६-६८। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002531
Book TitleAgam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya
Original Sutra AuthorSanghdas Gani
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages860
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vyavahara
File Size14 MB
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