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व्यवहार भाष्य : एक अनुशीलन
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वर्तमान में उपलब्ध चार छेदसूत्रों का नामकरण भी सार्थक हुआ है। आयारदशा में साधु जीवन के आचार की विविध अवस्थाओं का वर्णन है। यह दस अध्ययनों में निबद्ध है अतः इसका नाम 'दशाश्रुतस्कंध' भी है। कल्प का अर्थ है-आचार। जिसमें विस्तृत रूप में साधु के विधि-निषेध सूचक आचार का वर्णन है, वह 'बृहत्कल्प' है। बृहत्कल्प नाम की सार्थकता का विस्तृत विवेचन मलयगिरि ने बृहत्कल्प भाष्य की पीठिका में किया है।
व्यवहार प्रायश्चित्त सूत्र है। इसमें पांच व्यवहारों का मुख्य वर्णन होने के कारण इसका नाम 'व्यवहार' रखा गया।
आचारप्रकल्प में आचार के विविध विकल्पों का वर्णन है। इसका दूसरा नाम निशीथ भी है। निशीथ का अर्थ है-अर्धरात्रि या अंधकार। निशीथ भाष्य के अनुसार 'निशीथ' की वाचना अर्धरात्रि या अप्रकाश में दी जाती थी इसलिए इसका नाम निशीथ प्रसिद्ध हो गया। इसका संक्षिप्त नाम 'प्रकल्प' भी है। छेदसूत्रों की संख्या
छेदसूत्रों की संख्या के बारे में विद्वानों में मतभेद है। जीतकल्प चूर्णि में छेदसूत्रों के रूप में निम्न ग्रंथों का उल्लेख हुआ है-कल्प, व्यवहार, कल्पिकाकल्पिक, क्षुल्लकल्प, महाकल्प, निशीथ आदि। आदि शब्द से यहां संभवतः दशाश्रुतस्कंध ग्रंथ का संकेत होना चाहिए। कल्पिकाकल्पिक, महाकल्प एवं क्षुल्लकल्प आदि ग्रंथ आज अनुपलब्ध हैं। पर इतना निःसंदेह कहा जा सकता है कि ये प्रायश्चित्त सूत्र थे और इनकी गणना छेदसूत्रों में होती थी।
आवश्यकनियुक्ति में छेदसूत्रों के साथ महाकल्प का उल्लेख मिलता है। संभव है तब तक इस ग्रंथ का अस्तित्व था। सामाचारी शतक में छेदसूत्रों के रूप में छह ग्रंथों के नामों का उल्लेख मिलता है। दशाश्रुत, बृहत्कल्प, व्यवहार, निशीथ, जीतकल्प, महानिशीथ। पं. कैलाशचंद्र शास्त्री ने जीतकल्प के स्थान पर पंचकल्प को छेदसूत्रों के अन्तर्गत माना है।
हीरालाल कापड़िया के अनुसार पंचकल्प का लोप होने के बाद जीतकल्प की परिगणना छेदसूत्रों में होने लगी। कुछ मुनियों का कहना है कि पंचकल्प कभी बृहत्कल्पभाष्य का ही एक अंश था पर बाद में इसको अलग कर दिया गया जैसे ओघनियुक्ति और पिण्डनियुक्ति को। वर्तमान में पंचकल्प अनुपलब्ध है। जैन ग्रंथावली के अनुसार १७ वीं शती के पूर्वार्द्ध तक इसका अस्तित्त्व था। किन्तु
आ सकता कि इसका लोप कब हआ? पंचकल्प भाष्य की विषयवस्तु देखकर ऐसा लगता है कि किसी समय में पंचकल्प की गणना छेदसूत्रों में रही होगी।
विंटरनित्स के अनुसार छेदसूत्रों के प्रणयन का क्रम इस प्रकार है-कल्प, व्यवहार, निशीथ, पिंडनियुक्ति, ओघनियुक्ति, महानिशीथ। विंटरनित्स ने छेदसूत्रों में जीतकल्प का समावेश नहीं किया। जीतकल्प की रचना नंदी के बाद हुई अतः उसमें जीतकल्प का उल्लेख नहीं मिलता। पिंडनियुक्ति तथा ओघनियुक्ति साधु के नियमों का वर्णन करती है इसीलिए संभवतः विंटरनित्स ने इन दोनों का छेदसूत्रों के अन्तर्गत समावेश किया है।
दिगम्बर साहित्य में कल्प, व्यवहार और निशीथ-इन तीन ग्रन्थों का ही उल्लेख मिलता है, जिनका समावेश अंगबाह्य में किया गया है। जीतकल्प, पंचकल्प और महानिशीथ का उल्लेख दिगम्बर साहित्य में नहीं मिलता।
१. बृपी. पृ. ४। २. निभा.६६। ३. जीचू. पृ. १. कप्प-ववहार कप्पियाकप्पिय-चुल्लकप्प-महाकप्पसुय,
निसीहाइएसु छेदसुत्तेसु अइवित्थरेण पच्छित्तं भणियं। ४. आवनि-७७७, विभा २२६५। ५. सामाचारी शतक, आगमाधिकार । ६. जैनधर्म पृ. २५६। ७ AHistory of the canonical Literature of the Jains. Page.37 ८ A History of the canonical Literature of Jains, Page 36 ६. A History of the canonical Literature of the Jains. Page 36 १०. A History... Page 464
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