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________________ ४०] व्यवहार भाष्य भाष्यकार भी विषय को स्पष्ट करने के लिए द्वारगाथा लिखकर उसकी व्याख्या करते हैं। लेकिन अधिकांश द्वारगाथाएं एवं संग्रहगाथाएं नियुक्ति की हैं, ऐसा व्याख्याकारों की व्याख्या से प्रतीत होता है। पं. दलसुखभाई मालवणिया ने द्वारगाथाओं को नियुक्ति गाथा माना है। इसके अतिरिक्त बृहत्कल्प के छठे भाग में उल्लिखित चार्ट से स्पष्ट है कि नियुक्ति गाथा के लिए ही किसी प्रति में संग्रहगाथा तथा किसी में द्वारगाथा का संकेत है। द्वारगाथा एवं संग्रहगाथा को नियुक्ति मानने का एक कारण यह भी है कि बृहत्कल्प की टीका में जिस गाथा के लिए संग्रहगाथा का उल्लेख है वही गाथा व्यवहार की टीका में नियुक्ति के रूप में संकेतित है। कहीं-कहीं संग्रहगाथा के बारे में भाष्यकार द्वारा व्याख्या का उल्लेख भी मिलता है, जैसे बृभा १६११।। ७. नियुक्तियों की यह विशेषता है कि सभी नियुक्तियां एक ही शैली में रचित नहीं हैं। किन्तु एक ही ग्रंथ की नियुक्ति की भाषा, शैली एवं वर्णन पद्धति में बहुत समानता है। जैसे उत्तराध्ययन नियुक्ति में हर अध्ययन के प्रारम्भ में तीन गाथाएं सभी अध्ययनों में लगभग समान हैं। वैसे ही निशीथ नियुक्ति में अधिकांशतः हर सूत्र में प्रायश्चित्त स्वरूप 'सो आणाअणवत्थं, मिच्छत्तविराधणं पावे', 'सो पावति आणमादीणि' आदि एक जैसी गाथाएं आई हैं। इन गाथाओं को अनेक स्थलों पर चूर्णिकार ने नियुक्ति रूप में संकेतित किया है। चूर्णिकार के उल्लेख एवं एक ही रचना शैली के आधार पर ऐसी गाथाओं को नियुक्ति में सम्मिलित किया गया है। पूर्वापर सम्बन्ध से भी ‘आणमादीणि', 'आणाअणवत्थं' उल्लेख वाली गाथाएं नियुक्ति की प्रतीत होती हैं। बृहत्कल्प एवं व्यवहार की टीका में भी अनेक स्थलों पर ऐसी गाथाएं नियुक्ति के संकेत पूर्वक मिलती हैं-जैसे व्यभा १०५४ की गाथा में नियुक्तिविस्तरः' का उल्लेख है। ऐसी गाथाओं को नियुक्ति गाथा मानने का एक कारण यह भी है कि नियुक्ति के समय तक केवल आज्ञा का भंग, मिथ्यात्व आदि का भय ही साधक के लिए सबसे बड़ा प्रायश्चित्त था। अन्य प्रायश्चित्तों का बाद में प्रचलन हुआ है, ऐसा संभव लगता है। ८ नियुक्तिकार की विशेषता है कि वे किसी भी विषय को स्पष्ट करने के लिए संक्षेप में कथा या दृष्टान्त का उल्लेख करते हैं। जहां भी संक्षेप में कथा का संकेत आया है और बाद में उसी गाथा का विस्तार भाष्यकार करते हैं तो उस संक्षिप्त कथा का संकेत देने वाली गाथा को हमने नियुक्तिगत माना है। ऐसी गाथाओं को नियुक्तिगत मानने का एक कारण यह है कि अनेक स्थलों पर संक्षिप्त कथा-संकेत वाली गाथा के लिए टीकाकार ने 'अथ एनामेव गाथां भाष्यकारः विवृणोति' का उल्लेख किया है। इससे स्पष्ट है कि पूर्व की गाथा नियुक्ति की है। अनेक स्थलों पर टीकाकार ने नियुक्ति आदि का कुछ संकेत नहीं दिया है तो भी ऐसी गाथाओं को हमने नियुक्तिगत ही माना है। ६. अनेक स्थलों पर बृहत्कल्प में जिस गाथा को टीकाकार ने नियुक्तिगत माना है, वही गाथा निशीथ भाष्य में है पर वहां नियुक्ति का संकेत नहीं है। पर उस गाथा की अगली गाथा के पूर्व चूर्णिकार कहते हैं-'इमा वक्खाण गाहा'। इससे स्पष्ट है कि 'वक्खाण गाहा' से पूर्व वाली गाथा नियुक्ति की गाथा है। क्योंकि भाष्यकार नियुक्ति की ही व्याख्या करते हैं। यह चिन्तनीय है कि प्रत्येक व्याख्यान गाथा से पूर्व की गाथा को नियुक्ति की माना जाए या नहीं? क्योंकि ऐसे प्रसंग अनेक स्थलों पर मिलते हैं। इसी प्रकार 'इमा विभासा' 'इमा वक्खा' तथा 'इदानीं एनामेव गाथां व्याख्यानयति' आदि संकेत से पूर्व वाली गाथाएं नियुक्ति की होनी चाहिए। निशीथभाष्य में 'इमा भद्दबाहुसामिकता गाहा, एतीए इमा दो वक्खाणगाहातो' (४४०५) उल्लेख से स्पष्ट है कि नियुक्ति पर भाष्यकार व्याख्यान गाथा लिखते हैं। १०. कहीं-कहीं व्याख्याकार ने 'भाष्यविस्तरः', 'अथ भाष्यम्' आदि का उल्लेख किया है। वे गाथाएं यदि स्पष्ट रूप से नियुक्ति की प्रतीत होती हैं तो पादटिप्पण पूर्वक हमने उन गाथाओं को नियुक्ति के क्रमांक में जोड़ दिया है। जैसे व्यभा बहि अंतो (२५२२) गाथा के प्रारम्भ में टीकाकार ने 'भाष्यविस्तरः' का उल्लेख किया है पर यह निगा की होनी चाहिए। इसका एक सशक्त प्रमाण यह है कि २५२४वीं गाथा में २५२२वीं गाथा का प्रथम चरण पुनरुक्त हुआ है। कोई भी लेखक स्वयं अपनी रचना में इतनी पुनरुक्ति नहीं करता पर व्याख्याकार अपने से पूर्ववर्ती आचार्य की रचना की व्याख्या करें तो वे पुनरावृत्ति कर सकते हैं। ११. स्वतंत्र रूप से मिलने वाली नियुक्तियों की भाषा-शैली से स्पष्ट है कि निक्षेपपरक गाथाएं लिखना नियुक्तिकार का अपना वैशिष्ट्य है। मूल सूत्र में आए शब्द का नियुक्तिकार निक्षेप के द्वारा अर्थ-निर्धारण करते हैं। यद्यपि भाष्यकार भी निक्षेपपरक १. निपीभू. पृ. ४१, ४२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002531
Book TitleAgam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya
Original Sutra AuthorSanghdas Gani
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages860
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vyavahara
File Size14 MB
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