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________________ सम्पादकीय [२७ सन् १९८७ की अक्षय तृतीया को यह कार्य प्रारम्भ हुआ। लगभग ६ महीने में पांडुलिपि से सम्पादन का कार्य सम्पन्न हो गया। इसी बीच देशी शब्दकोश के कार्य में जुड़ने का भी मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ। भाष्य का कार्य सम्पन्न होने पर भी प्रकाशन की ओर ध्यान नहीं दिया गया। सन् १६६४ दिल्ली चातुर्मास में इसके प्रकाशन का कार्य प्रारम्भ हुआ। परिशिष्टों के निर्माण एवं प्रूफ रीडिंग में दो साल का समय लग गया। यद्यपि कार्य की सम्पन्नता में बहुत अनपेक्षित समय लगा है पर इसके भी कुछ कारण रहे हैं। गुरुदेव के निर्देशानुसार पूना से प्राप्त एक प्रति के पाठान्तर प्रूफ आने के बाद जोड़े गए हैं। इस कार्य में श्रम बहुत हुआ है पर संतोष है कि कार्य यथेष्ट रूप में सम्पन्न हो गया। पूज्य गुरुदेव ने नारी को विकास के अनेक नए क्षितिज दिए हैं। साहित्य के क्षेत्र में तेरापंथ के साध्वी समाज ने नए कीर्तिमान स्थापित किए हैं। पूज्य गुरुदेव एवं आचार्यश्री की प्रेरणा से अनेक साध्वियां आगम-सम्पादन के कार्य में संलग्न हैं। भगवती-जोड़ के सम्पादन का गुरुतर कार्य, जिसके विषय में कल्पना करना भी साहसिक बात थी पर महाश्रमणी साध्वी प्रमुखाजी के कुशल सम्पादकत्व में इसके छह खंड प्रकाश में आ गए हैं, सातवें खंड का कार्य चालू है। पूज्य गुरुदेव ने अपने जीवन में नारी विकास के अनेक स्वप्न देखे हैं। और वे फलित भी हुए हैं। एक स्वप्न की चर्चा करते हुए बीदासर में (१२/२/६७) गुरुदेव ने कहा- 'मैं तो उस दिन का स्वप्न देखता हूं, जब साध्वियों द्वारा लिखी गयी टीकाएं या भाष्य सामने आएं। जिस दिन वे इस रूप में सामने आएंगी मैं अपने कार्य का एक अंग पूर्ण समझूगा।' गुरुदेव का यह स्वप्न पूर्ण रूप से सार्थक नहीं हुआ है पर इस दिशा में प्रस्थान हो चुका है। फिर भी हमें अत्यंत जागरूक रहकर उसे पूर्ण सार्थक करने का प्रयत्न करना है। कृतज्ञता ज्ञापन गणाधिपति गुरुदेव श्री तुलसी का नाम मेरे लिए मंगलमंत्र है। हर कार्य के प्रारम्भ में आदि मंगल के रूप में उनके नाम का स्मरण मेरे जीवन की दिनचर्या का स्वाभाविक क्रम बन गया है। इसलिए मेरी हर सफलता का श्रेय गुरु-चरणों को जाता है। मुझे हर पल यह अहसास होता रहा है कि उनके शक्ति-संप्रेषण एवं आशीर्वाद से ही यह कार्य सम्पन्न हो सका है। समय-समय पर मिलने वाली उनकी प्रेरणा एवं प्रोत्साहन ने भी अद्भुत गति एवं स्फूर्ति का संचार किया है। आचार्य महाप्रज्ञजी श्रुत की उपासना में वर्षों से अहर्निश लगे हुए हैं। वे मूर्तिमान श्रुतपुरुष हैं। समय-समय पर उनके मार्गदर्शन ने मेरे कार्य को सुगम, सुगमतर, सुगमतम बनाया है। भविष्य में उनकी ज्ञानरश्मियों का आलोक मुझे मिलता रहे, यह अभीप्सा है। प्रस्तुत कार्य की निर्विघ्न संपूर्ति में महाश्रमणी साध्वी प्रमुखाजी के आशीर्वाद एवं निश्छल वात्सल्य का बहुत बड़ा योग रहा है। जब-जब निराशा या श्लथता का अनुभव हुआ, उनकी प्रेरणा ने नयी आशा एवं सक्रियता का संचार कर दिया। प्रतिदिन कार्य की अवगति लेने एवं समणियों को इस कार्य में नियुक्त करने से ही यह कार्य सम्पन्न हो पाया है। मैं उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करके उऋण नहीं होना चाहती। आकांक्षा है कि भविष्य में भी मेरी साहित्यिक यात्रा में उनका पथदर्शन और प्रोत्साहन निरन्तर मिलता रहे। इस कार्य में महाश्रमणजी की मूक प्रेरणाएं भी मेरे लिए मूल्यवान् रही हैं। आगम कार्य में मुनि श्री दुलहराजजी का निर्देशन मुझे पिछले कई सालों से मिल रहा है। जिस निःस्वार्थ एवं निस्पृह भाव से उनका दिशादर्शन मिला है, वह केवल उल्लेखनीय ही नहीं, अनुकरणीय भी है। पाठ-सम्पादन में अनेक स्थलों का विमर्श, विषयानुक्रमणिका एवं अनेक परिशिष्ट उनकी ज्ञान-चेतना के आलोक में ही सम्पन्न हो सके हैं। अनेक परिशिष्टों की अनुक्रमणिका एवं प्रूफ देखने में मुनि श्री हीरालालजी का सहयोग भी मेरे स्मृति पटल पर अंकित है। अत्यन्त सूक्ष्मता एवं लगन से अपना कार्य समझकर उन्होंने इस कार्य की सम्पूर्ति में अपना सहकार दिया है। नियोजिका समणी मंगलप्रज्ञाजी ने व्यवस्थागत सहयोग से इस कार्य को हल्का बनाया है। लिपीकरण एवं प्रूफ-संशोधन में समणी ऋजुप्रज्ञाजी, कमला बैद एवं बहिन निर्मला चोरडिया का सहयोग विशेष स्मरणीय है। इसके अतिरिक्त अल्पकालिक समय के लिए प्रफ रीडिंग एवं लिपीकरण में समणी ज्योतिप्रज्ञा, मननप्रज्ञा, संघप्रज्ञा, कंचनप्रज्ञा एवं चैतन्यप्रज्ञा का नाम भी उल्लेखनीय है। प्रो. रानाडे ने बड़ी तत्परता एवं निष्ठा के साथ ग्रंथ की भूमिका के कुछ अंशों का अंग्रेजी अनुवाद किया है। समणी चारित्रप्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002531
Book TitleAgam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya
Original Sutra AuthorSanghdas Gani
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages860
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vyavahara
File Size14 MB
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