________________
४४]
व्यवहार भाष्य
“अस्य च स्वल्पग्रन्थमहार्थतया दुःखबोधतया च सकल-त्रिलोकीसुभगङ्करणक्षमाश्रमणनामधेयाभिधेयैः श्री संघदासगणिपूज्यैः प्रतिपदप्रकटितसर्वज्ञाज्ञाविराधनासमुद्भूतप्रभूतप्रत्यपायजालं निपुणचरणकरणपरिपालनोपायगोचरविचारवाचालं सर्वथा दूषणकरणेनाप्यदूष्यं भाष्यं विरचयांचक्रे।"
इस उल्लेख के सन्दर्भ में मुनि पुण्यविजयजी का मत संगत लगता है कि बृहत्कल्प के भाष्यकार आचार्य संघदासगणि होने चाहिए। यहां यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि बृहत्कल्प भाष्य एवं व्यवहार भाष्य के कर्ता एक ही हैं क्योंकि बृहत्कल्प भाष्य की प्रथम गाथा में स्पष्ट निर्देश है कि 'कप्पव्यवहाराणं वक्खाणविहिं पवक्खामि।
टीकाकार ने इस गाथा के लिए 'सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिभणितमिदम्' का उल्लेख किया है। चूर्णिकार ने इस गाथा के लिए 'आयरिओ भासं काउकामो आदावेव गाथासूत्रमाह' का उल्लेख किया है। यहां प्राचीनता की दृष्टि से चूर्णिकार का मत सम्यक् लगता है। चूर्णिकार के मत की प्रासंगिकता का एक हेतु यह भी है कि व्यवहारभाष्य के अंत में भी 'कप्पव्यवहाराणं भासं' का उल्लेख मिलता है। अतः यह गाथा भाष्यकार की होनी चाहिए, जिसमें उन्होंने प्रतिज्ञा की है कि मैं कल्प और व्यवहार की
पान-विधि प्रस्तुत करूंगा। वक्खाणविधि शब्द भी भाष्य की ओर ही संकेत करता है क्योंकि नियुक्ति अत्यन्त संक्षिप्त शैली में लिखी गयी रचना है। उसके लिए 'वक्खाणविहि' शब्द का प्रयोग नहीं होना चाहिए अतः यह नियुक्ति की गाथा नहीं, भाष्य की गाथा होनी चाहिए। कप्पव्ववहाराणं, भाष्यकार के इस उल्लेख से यह स्पष्ट ध्वनित हो रहा है कि उन्होंने केवल बृहत्कल्प एवं व्यवहार पर ही भाष्य लिखा, निशीथ पर नहीं।
पंडित दलसुख भाई मालवणिया निशीथ भाष्य के कर्ता सिद्धसेनगणि को स्वीकारते हैं क्योंकि निशीथ चूर्णिकार ने अनेक स्थलों पर 'अस्य सिद्धसेनाचार्यो व्याख्यां करोति' का उल्लेख किया है। पर इस तर्क के आधार पर सिद्धसेन को भाष्यकर्ता मानना संगत नहीं लगता क्योंकि चूर्णिकार ने ग्रंथ के प्रारम्भ और अंतिम प्रशस्ति में कहीं भी सिद्धसेन का उल्लेख नहीं किया है। यदि सिद्धसेन भाष्यकर्ता होते तो अवश्य ही चूर्णिकार प्रारम्भ में या ग्रंथ के अंत में उनका नामोल्लेख अवश्य करते। इस संबंध में हमारे विचार से निशीथ संकलित रचना होनी चाहिए, जिसकी संकलना आचार्य सिद्धसेन ने की। अनेक स्थलों पर निशीथ नियुक्ति की गाथाओं को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने व्याख्यान गाथाएं भी लिखीं। अतः निशीथ मौलिक रचना न होकर संकलित रचना ही प्रतीत होती है। यदि इसमें से अन्य ग्रंथों की गाथाओं को निकाल दिया जाए तो मूल गाथाओं की संख्या बहुत कम रहेगी। दस प्रतिशत भाग भी मौलिक ग्रन्थ के रूप में अवशिष्ट नहीं रहेगा। पंडित दलसुखभाई मालवणिया भी इस तथ्य को स्वीकार करते हुए कहते हैं-'निशीथ भाष्य के विषय में कहा जा सकता है कि इन समग्र गाथाओं की रचना किसी एक आचार्य ने नहीं की। परम्परा से प्राप्त गाथाओं का भी यथास्थान भाष्यकार ने उपयोग किया है और अपनी ओर से नवीन गाथाएं बनाकर जोड़ी हैं।' (निपीभू पृ. ३०, ३१) । . भाष्यकार ने इस ग्रंथ की रचना कौशल देश में अथवा उसके पास के किसी क्षेत्र में की है, ऐसा अधिक संभव लगता है। भारत के १६ जनपदों में कौशल देश का महत्त्वपूर्ण स्थान था। प्रस्तुत भाष्य में कौशल देश से सम्बन्धित दो-तीन घटनाओं का वर्णन है, इसके अतिरिक्त सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि ग्रंथकार जहां क्षेत्र के आधार पर मनोरचना का वर्णन कर रहे हैं, वहां कहते हैं 'कोसलएस अपावं सतेसु एक्कं न पेच्छामो' अर्थात् कौशल देश में सैकड़ों में एक व्यक्ति भी पापरहित नहीं देखते हैं। यहां 'पेच्छामो' क्रिया ग्रंथकार द्वारा स्वयं देखे जाने की ओर इंगित करती है।
भाष्य का रचनाकाल
भाष्यकार संघदासगणि का समय भी विवादास्पद है। अभी तक इस दिशा में विद्वानों ने विशेष ऊहापोह नहीं किया है। संघदासगणि आचार्य जिनभद्र से पूर्ववर्ती हैं- इस मत की पुष्टि में अनेक हेतु प्रस्तुत किये जा सकते हैं
जिनभद्रगणि के विशेषणवती ग्रंथ में निम्न गाथा मिलती है
१. अंगुत्तरनिकाय १/२१३। २. व्यभा.२६५६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org