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________________ व्यवहार भाष्य : एक अनुशीलन [४३ भाष्यों एवं नियुक्तियों की गाथाएं ही अधिक संक्रान्त हुई हैं। जीतकल्प भाष्य में तो जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण स्पष्ट लिखते हैं- 'कल्प, व्यवहार और निशीथ उदधि के समान विशाल हैं अतः उन श्रुतरत्नों के बिंदुरूप या नवनीत रूप सार यहां प्रस्तुत किया जा रहा है। इस उद्धरण से स्पष्ट है कि जिनभद्रगणि के समक्ष तीनों छेदसूत्रों के भाष्य थे। 'उदधि सदृश' विशेषण मूल सूत्रों के लिए प्रयुक्त नहीं हो सकता क्योंकि वे आकार में इतने बड़े नहीं हैं। जिन ग्रंथों पर नियुक्तियां नहीं हैं वे भाष्य मूल सूत्र की व्याख्या ही करते हैं, जैसे-जीतकल्प भाष्य आदि। कुछ भाष्य नियुक्ति पर भी लिखे गए हैं जैसे-पिंडनियुक्ति एवं ओघनियुक्ति आदि। छेदसूत्रों के भाष्यों में व्यवहारभाष्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्रायश्चित्त निर्धारक ग्रंथ होने पर भी इसमें प्रसंगवश समाज, अर्थशास्त्र, राजनीति, मनोविज्ञान आदि अनेक विषयों का विवेचन मिलता है। भाष्यकार ने व्यवहार के प्रत्येक सूत्र की विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत की है। बिना भाष्य के केवल व्यवहार सूत्र को पढ़कर उसके अर्थ को हृदयंगम नहीं किया जा सकता। भाष्यकार भाष्यकार के रूप में मुख्यतः दो नाम प्रसिद्ध हैं-१. जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण, २. संघदासगणि। मुनिश्री पुण्यविजयजी ने चार भाष्यकारों की कल्पना की है-१. जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण, २. संघदासगणि, ३. व्यवहारभाष्य के कर्ता तथा ४. कल्पबृहद्भाष्य आदि के कर्ता। विशेषावश्यक भाष्य के कर्ता के रूप में जिनभद्रगणि का नाम सर्वसम्मत है लेकिन बृहत्कल्प, व्यवहार आदि भाष्यों के कर्ता के बारे में सभी का मतैक्य नहीं है। प्राचीन काल में लेखक बिना नामोल्लेख के कृतियां लिख देते थे। कालान्तर में यह निर्णय करना कठिन हो जाता था कि वास्तव में मूल लेखक कौन थे? कहीं-कहीं नाम साम्य के कारण भी मूल लेखक का निर्णय करना कठिन होता है। बृहत्कल्प की पीठिका में मलयगिरि ने भाष्यकार का नामोल्लेख न कर केवल 'सुखग्रहणधारणाय भाष्यकारो भाष्यं कृतवान्' इतना-सा उल्लेख मात्र किया है। निशीथ चूर्णि एवं व्यवहार की टीका में भी भाष्यकार के नाम के बारे में कोई संकेत नहीं मिलता। पंडित दलसुखभाई मालवणिया ने निशीथ पीठिका की भूमिका में अनेक हेतुओं से यह सिद्ध किया है कि निशीथ भाष्य के कर्ता सिद्धसेन होने चाहिए। उन्होंने यह भी संभावना व्यक्त की है कि बृहत्कल्प भाष्य के कर्ता भी सिद्धसेन हैं। अपने मत की पुष्टि के लिए वे कहते हैं कि अनेक स्थलों पर निशीथ चूर्णि में जिस गाथा के लिए 'सिद्धसेणायरियो बक्खाणं करेति' का उल्लेख है वही गाथा बृहत्कल्प भाष्य में 'भाष्यकारो व्याख्यानयति के संकेतपूर्वक है। अतः निशीथ, बृहत्कल्प एवं व्यवहार तीनों के भाष्यकर्त्ता सिद्धसेन हैं, यह स्पष्ट है। इसके साथ-साथ उन्होंने और भी हेतु प्रस्तुत किए हैं। मुनि पुण्यविजयजी बृहत्कल्प के भाष्यकार के रूप में संघदासगणि को स्वीकार करते हैं। उनके अभिमत से संघदासगणि नाम के दो आचार्य हुए हैं। प्रथम संघदासगणि जो 'वाचकपद' से विभूषित थे, उन्होंने वसुदेवहिंडी के प्रथम खण्ड की रचना की। द्वितीय संघदासगणि उनके बाद हुए, जिन्होंने बृहत्कल्प-लघुभाष्य की रचना की। वे क्षमाश्रमण पद से अलंकृत थे। आचार्य संघदासगणि भाष्य के कर्ता हैं इसकी पुष्टि में सबसे बड़ा प्रमाण आचार्य क्षेमकीर्ति का निम्न उद्धरण है। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा है "कल्पेनल्पमनघु प्रतिपदमर्पयति योऽर्थनिकुरम्बम् । ... श्रीसंघदासगणये, चिन्तामणये नमस्तस्मै॥ १. जीभा-२६०५ : कप्पव्ववहाराणं, उदधिसरिच्छाण तह णिसीहस्स। . सुतरयणबिन्दुणवणीतभूतसारेस णातव्यो। २. बृपी.टी.'पृ. २। ३. निपीभू. पृ. ४०-४६ । ४. बृभा भाग ६, भूमिका पृ. २०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002531
Book TitleAgam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya
Original Sutra AuthorSanghdas Gani
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages860
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vyavahara
File Size14 MB
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