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व्यवहार भाष्य
की दृष्टि से स्वयं भाष्यकार ने गाथाओं को आगे-पीछे कर दिया है। अनेक स्थलों पर भाष्यकार ने नियुक्तिगाथा पर अपनी टिप्पणी भी दी है तथा नियुक्ति से भाष्यगाथा की क्रमबद्धता को जोड़ने का प्रयत्न भी किया है। जैसे- 'सुत्ते अत्थे...यह व्यभा की सातवीं गाथा नियुक्ति की है। इसमें भावव्यवहार के एकार्थक दिए गए हैं। पर इनमें जीत व्यवहार के एकार्थकों की प्रमुखता है। आठवीं गाथा भाष्य की है। इसमें भाष्यकार ने सातवीं गाथा से सम्बन्ध जोड़ने का प्रयत्न किया है। यदि सातवीं गाथा को नियुक्ति की नहीं मानें तो नौवीं गाथा में पुनः जीत व्यवहार के एकार्थक दिए गए हैं। एक ही ग्रंथकर्ता ऐसी पुनरुक्ति नहीं करते।
इसी प्रकार गा. ५२ में भी भाष्यकार ने सम्बन्ध जोड़ने का प्रयत्न किया है। गा. ५२ में 'पच्छित्तं वा इमं दसहा' का उल्लेख है तथा ५३वीं गाथा नियुक्ति की है जिसमें १० प्रकार के प्रायश्चित्तों का उल्लेख है। व्यभा २०८६ में भाष्यकार स्पष्ट कहते हैं-'निज्जुत्ती सुत्तफासेसा।' इन कथनों से स्पष्ट है कि क्रमबद्धता को जोड़ने का प्रयत्न भी भाष्यकार करते हैं।
१६. भाष्य से नियुक्ति को पृथक् करने में सबसे बड़े मार्गदर्शक रहे हैं निशीथ चूर्णिकार और टीकाकार मलयगिरि। टीकाकार ने गाथा की व्याख्या के क्रम को जोड़ने का बहुत सुंदर प्रयत्न किया है। इससे यह ज्ञात हो जाता है कि किस गाथा के किस अंश की कितनी गाथाओं में व्याख्या की गयी है। टीकाकार की व्याख्या के बिना नियुक्ति को भाष्य से पृथक् करना अत्यन्त दुरूह कार्य था। अनेक स्थलों पर सैकड़ों गाथाओं के बाद भी पूर्ववर्ती द्वारगाथा की व्याख्या चल रही है उसका भी टीकाकार ने संकेत कर दिया है। जैसे व्यभा ३५१। ।
हमने भाष्य और नियुक्ति का पृथक्करण जिन बिंदुओं के आधार पर किया है उसकी संक्षिप्त रूपरेखा यहां प्रस्तुत की है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि अन्यान्य स्वतंत्र नियुक्तियों का गहन अध्ययन तथा गाथा के पौर्वापर्य का समीचीन ज्ञान कर हमने नियुक्ति गाथाओं का पृथक्करण किया है। यह दावा नहीं किया जा सकता कि यह वर्गीकरण बिलकुल सही ही हुआ है। यह प्रथम प्रयास है, अंतिम प्रयत्न नहीं है। इस प्रयास में कुछ भाष्य की गाथाएं नियुक्ति में संकलित हो सकती हैं तथा कुछ नियुक्तिगाथाएं छूट भी सकती हैं लेकिन हमने अपनी विधा के अनुसार एक सुप्रयत्न किया है। इस दिशा में अनुसंधित्सु वर्ग विशेष प्रयत्नशील होकर और अधिक प्रकाश डाल सकेगा।
भाष्य
आगमों के व्याख्या ग्रन्थों में 'भाष्य' का दूसरा स्थान है। व्यवहार भाष्य गाथा ४६६३ में भाष्यकार ने अपनी व्याख्या को भाष्य नाम से संबोधित किया है। नियुक्ति की रचना अत्यन्त संक्षिप्त शैली में है। उसमें केवल पारिभाषिक शब्दों पर ही विवेचन या चर्चा मिलती है। किन्तु भाष्य में मूल आगम तथा नियुक्ति दोनों की विस्तृत व्याख्या की गयी है।
वैदिक परम्परा में भाष्य लगभग गद्य में लिखा गया लेकिन जैन परम्परा में भाष्य प्रायः पद्यबद्ध मिलते हैं। जिस प्रकार नियुक्ति के रूप में मुख्यतः १० नियुक्तियों के नाम मिलते हैं वैसे ही भाष्य भी १० ग्रंथों पर लिखे गए, ऐसा उल्लेख मिलता है। वे ग्रन्थ ये हैं
१. आवश्यक', २. दशवैकालिक, ३. उत्तराध्ययन, ४. बृहत्कल्प', ५.पंचकल्प, ६. व्यवहार, ७. निशीथ, ८. जीतकल्प, ६. ओघनियुक्ति १०. पिंडनियुक्ति।
मुनि पुण्यविजयजी के अनुसार व्यवहार और निशीथ पर भी बृहद्भाष्य लिखा गया पर आज वह अनुपलब्ध है। इनमें बृहत्कल्प, व्यवहार एवं निशीथ-इन तीन ग्रंथों के भाष्य गाथा-परिमाण में बृहद् हैं। जीतकल्प, विशेषावश्यक एवं पंचकल्प परिमाण में मध्यम, पिंडनियुक्ति, ओघनियुक्ति पर लिखे गए भाष्य ग्रंथान में अल्प तथा दशवैकालिक एवं उत्तराध्ययन इन दो ग्रंथों के भाष्य ग्रंथान में अल्पतम हैं।
यह भी अनुसंधान का विषय है कि तीन छेदसूत्रों पर बृहद्भाष्य लिखे गए फिर दशाश्रुतस्कंध पर क्यों नहीं लिखा गया जबकि नियुक्ति चारों छेदसूत्रों पर मिलती है? संभव है इस ग्रंथ पर भी भाष्य लिखा गया हो पर वह आज प्राप्त नहीं है।
उपर्युक्त दस भाष्यों में निशीथ, जीतकल्प एवं पंचकल्प को संकलन प्रधान भाष्य कहा जा सकता है। क्योंकि इनमें अन्य
१. आवश्यक पर तीन भाष्यों का उल्लेख मिलता है-मूलभाष्य, भाष्य एवं विशेषावश्यक भाष्य। २. बृहत्कल्प पर भी बृहद् एवं लघु भाष्य लिखा गया। बृहद्भाष्य तीसरे उद्देशक तक मिलता है, वह भी अपूर्ण है।
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