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________________ व्यवहार भाष्य एक अनुशीलन व्यवहार भाष्य में इसकी संवादी गाथा इस प्रकार मिलती है सीधे तिविट्ठ निहतो, भमिउं रायगिह कविलबडुग ति । जिणवीरकहणमणुवसम गोतमोवसम दिक्खा य।। २ विशेषणवती में प्रयुक्त 'ववहारे' शब्द निश्चित रूप से व्यवहारभाष्य के लिए हुआ है क्योंकि मूलसूत्र में इस कथा का कोई उल्लेख नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि आचार्य जिनभद्रगणि के समक्ष व्यवहारभाष्य था । 1 विशेषावश्यकभाष्य की रचना व्यवहारभाष्य के पश्चात् हुई इसका एक प्रबल हेतु यह है कि बृहत्कल्प एवं व्यवहारभाष्य कर्त्ता के समक्ष यदि विशेषावश्यकभाष्य होता तो वे अवश्य विशेषावश्यकभाष्य की गाथाओं को अपने ग्रंथ में सम्मिलित करते क्योंकि वह एक आकर ग्रन्थ है, जिसमें अनेक विषयों का सांगोपांग वर्णन प्राप्त है जबकि व्यभा एवं वृभा में अन्य भाष्य पंचकल्प, निशीथ आदि की सैकड़ों गाथाएं संवादी हैं व्यवहारभाष्य की 'मणपरमोधिपुलाए' गाथा विभा में मिलती है। वह व्यवहारभाष्य की गाथा है और विशेषावश्यकभाष्य के कर्त्ता ने उसे उधृत की है, ऐसा प्रसंग से स्पष्ट प्रतीत होता है। अतः व्यवहारभाष्य विशेषावश्यकभाष्य से पूर्व की रचना है, ऐसा मानने में कोई आपत्ति नहीं लगती। १८ १६ सीहो चेव सुदाढो, जं रायगिहम्मि कविलबडुओ त्ति । सीसइ वबहारे गोयमोवसमिओ स णिक्खंतो॥' व्यवहारभाष्य के कर्ता जिनभद्र से पूर्व हुए इसका एक प्रबल हेतु यह है कि जीतकल्प चूर्णि में स्पष्ट उल्लेख है कि कल्प, व्यवहार, निशीथ आदि में प्रायश्चित्त का इतने विस्तार से निरूपण है कि पढ़ने वाले के गति-विपर्यास हो जाता है शिष्यों की प्रार्थना पर जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने संक्षेप में प्रायश्चित्तों का वर्णन करने हेतु जीतकल्प की रचना की। यहां कल्प, व्यवहार शब्द से मूलसूत्र से तात्पर्य न होकर उसके भाष्य की ओर संकेत होना चाहिए क्योंकि मूल ग्रंथ परिमाण में इतने बृहद् नहीं हैं। दूसरी बात व्यवहारभाष्य की प्रायश्चित्त संबंधी अनेक गाथाएं जीतकल्प में अक्षरशः उद्धृत हैं। जैसे- जीतकल्प जीतकल्प व्यभा व्यभा ११० ૧૧૧ Jain Education International १. विशेषणवती गा. ३३ । २. व्यभा. २६३८ । ३. जीचू. पू. १,२ । ४. गणधरवाद पृ. ३२-३५ [ ४५ २२ ३१,३२ ११४ तु. १०,११ निशीथभाष्य जिनभद्रगणि से पूर्व संकलित हो चुका था इसका एक प्रमाण यह है कि निभा में प्रमाद-प्रतिसेवना के संदर्भ में निद्रा का विस्तृत वर्णन मिलता है। स्त्यानर्द्धि निद्रा के उदाहरण के रूप में निभा (१३५) में 'पोग्गल मोयग दंते' गाथा मिलती है यह गाथा विशेषावश्यकभाष्य (२३५) में भी है लेकिन वहां स्पष्ट प्रतीत हो रहा है कि व्यञ्जनावग्रह के प्रसंग में विशेषावश्यक | | भाष्यकार ने यह गाथा निभा से उद्धृत की है । विभा में यह गाथा प्रक्षिप्त-सी लगती है। कुछ अंतर के साथ यह गाथा बृभा (५०१७) में भी मिलती है। पंडित दलसुख भाई मालवणिया ने जिनभद्र का समय छठीं -सातवीं शताब्दी सिद्ध किया है अतः भाष्यकार संघदासगणिका समय पांचवीं, छठी शताब्दी होना चाहिए। भाष्य ग्रंथों का रचनाकाल चौथी से छठी शताब्दी तक ही होना चाहिए। यदि भाष्य का रचनाकाल सातवीं शताब्दी माना जाए तो आगे के व्याख्या ग्रंथों के काल-निर्धारण में अनेक विसंगतियां उत्पन्न होती हैं। प्राचीन काल में आज की भांति मुद्रण की व्यवस्था नहीं थी अतः हस्तलिखित किसी भी ग्रंथ को प्रसिद्ध होने में कम से कम एक शताब्दी का समय तो लग ही जाता था। सातवीं शताब्दी में भाष्य लिखे गए और आठवीं में हरिभद्र ने टीकाएं लिखीं फिर चूर्णि के समय में अन्तराल बहुत कम रहता है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002531
Book TitleAgam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya
Original Sutra AuthorSanghdas Gani
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages860
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vyavahara
File Size14 MB
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