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व्यवहार भाष्य
नियुक्तिकार के रूप में हमने चतुर्दशपूर्वी प्रथम भद्रबाहु को स्वीकार किया है, जिनका समय वीर-निर्वाण की दूसरी शताब्दी है। भाष्य का समय विक्रम की चौथीं-पांचवी, चूर्णि का सातवीं तथा टीका का आठवीं से तेरहवीं शताब्दी का समय तर्क-सम्मत एवं संगत लगता है।
निशीथ, बहत्कल्प एवं व्यवहार-इन तीन छेदसत्रों के भाष्य के रचनाक्रम के बारे में पंडित दलसख भाई मालवणिया का अभिमत है कि सबसे पहले बृहत्कल्प भाष्य रचा गया, उसके बाद निशीथ भाष्य तथा अंत में व्यवहार भाष्य की रचना हुई। लेकिन हमारे अभिमत से निशीथ भाष्य की रचना या संकलना सबसे बाद में हुई है। उसके कारणों की चर्चा हम पहले कर चुके हैं। भाष्यकार ने व्यवहार से पूर्व बृहत्कल्प की रचना की, यह बात उनकी प्रतिज्ञा से स्पष्ट है-कप्पव्ववहाराणं वक्खाणविहिं पवक्खामि। इसके अतिरिक्त व्यवहार भाष्य में अनेक स्थलों पर 'पुब्बुत्तो', 'वुत्तो' 'जह कप्पे', 'वण्णिया कप्पे' आदि का उल्लेख मिलता है। व्यवहार भाष्य की निम्न गाथाओं में बृहत्कल्प की ओर संकेत है। इनमें कुछ उद्धरण बृहत्कल्प एवं कुछ उद्धरण बृहत्कल्प भाष्य की ओर संकेत करते हैं
११७२, १२२६, १३३६, १७३७, १७४८, १८३३, १६३३, २१७१, २१७३, २२७६, २२६६, २५०६, २५२३, २६६२, २८०५, २८०६, २८१७, २६२७, २६८३, ३०६२, ३२४७, ३३१३, ३३५०, ३८६६, ४२३१, ४३१४ आदि।
यह निश्चित है कि आगमों पर लिखे गए व्याख्या ग्रंथों का क्रम इस प्रकार रहा है-नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि एवं टीका। लेकिन अलग-अलग ग्रंथों के व्याख्या ग्रंथों को लिखने में इस क्रम में व्यत्यय भी हुआ है। उदाहरण के लिए पंचकल्प भाष्य की निम्न गाथा को प्रस्तुत किया जा सकता है
परिजुण्णेसा भणिता, सुविणा देवीए पुप्फचूलाए।
नरगाण दंसणेणं, पव्वजाऽऽवस्सए वुत्ता॥ पुष्पचूला की कथा विशेषावश्यक भाष्य में नहीं है किन्तु आवश्यक चूर्णि में है। इससे सिद्ध होता है कि पंचकल्प के भाष्यकार के समक्ष आवश्यक चूर्णि थी।
इसी प्रकार जीतकल्प की चूर्णि के बाद उसका भाष्य रचा गया क्योंकि चूर्णि केवल जीतकल्प की गाथाओं की ही व्याख्या करती है। उसमें भाष्य का उल्लेख नहीं है। यदि चूर्णिकार के समक्ष भाष्यर्गाथाएं होती तो वे अवश्य उनकी व्याख्या करते। चूर्णिकार ने व्यवहार भाष्य की अनेक गाथाओं को उद्धृत किया है।
प्रसंगवश में निभा ५४५ की उत्थानिका का उल्लेख भी विद्वानों को इस दिशा में सोचने के लिए प्रेरित करता है। वहां स्पष्ट उल्लेख है कि "सिद्धसेणायरिएण जा जयणा भणिया तं चेव संखेवओ भद्दबाहू भण्णति" इस उद्धरण से स्पष्ट है कि यहां द्वितीय भद्रबाहु की ओर संकेत है। प्रथम भद्रबाहु तो सिद्धसेन की रचना की व्याख्या नहीं कर सकते क्योंकि वे उनसे बहुत प्राचीन हैं। बृहत्कल्प भाष्य (२६११) में भी इस गाथा के पूर्व टीकाकार उल्लेख करते हैं कि “या भाष्यकृता सविस्तरं यतना प्रोक्ता तामेव नियुक्तिकृदेकगाथया संगृह्याह।" यह उद्धरण विद्वानों के चिन्तन या ऊहापोह के लिए है। इसके आधार पर यह संभावना की जा सकती है कि सिद्धसेन द्वितीय भद्रबाहु से पूर्व पांचवीं शती के उत्तरार्ध में हो गए थे। द्वितीय भद्रबाहु के समक्ष नियुक्तियां तथा उन पर लिखे गए कुछ भाष्य भी थे।
मुनि पुण्यविजयजी ने दशवैकालिक की अगस्त्यसिंह चूर्णि को दशवकालिक भाष्य से पूर्व की रचना माना है तथा उसके कुछ हेतु भी प्रस्तुत किये हैं।
भाषा की दृष्टि से भी भाष्य रचना की प्राचीनता सिद्ध होती है। अपभ्रंश की प्रवृत्ति लगभग छठी शताब्दी से प्रारम्भ होती है लेकिन भाष्य में अपभ्रंश के प्रयोग ढूंढने पर भी नहीं मिलते। इसके अतिरिक्त महाराष्ट्री का प्रभाव भी कम परिलक्षित होता
१. द्वितीय भद्रबाहु ने नियुक्तियों में परिवर्तन एवं परिवर्धन भी किया है, जिनका समय विक्रम की पांचवीं-छठी शताब्दी है। २. पंकभा ६०६। ३. दशअचू भूमिका पृ. १५-१७।
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