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परिशिष्ट-८
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डांट-फटकारा । भिक्षुणी ने भाजन नहीं लौटाया ।
३४. राजा और नापित
एक राजा था। वह खल्वाट था। उसके दाढ़ी-मूंछ भी नहीं थी । उसके पास एक नाई था। राजा के बाल नहीं हैं, यह सोचकर वह कभी हजामत के लिए उपक्रम नहीं करता। राजा ने उसे निकाल दिया ।
(गा. ५८१ टी. प. ४०, ४१ )
एक दूसरा नाई सात दिनों में एक बार आता और राजा के हजामत करने का नाटक करता। राजा उससे संतुष्ट था । (गा. ५८६ टी. प. ४२ )
३५. योनिप्राभृत की वाचना
एक आचार्य 'योनिप्राभृत' की वाचना दे रहे थे। एक उत्प्रवजित साधु ने छुपकर उनकी वाचना सुन ली । आचार्य अपने शिष्यों को बता रहे थे कि अमुक-अमुक द्रव्यों के संयोजन से भैंसे उत्पन्न किए जा सकते हैं। यह सुनकर वह उठप्रव्रजित मुनि अपने स्थान पर गया और आचार्य द्वारा निर्दिष्ट द्रव्यों का संयोजन कर अनेक भैंसे बनाए। उसने उन भैंसों को एक गृहस्थ के द्वारा बिकवा दिया। आचार्य को यह बात जैसे-तैसे ज्ञात हो गई । वे उससे मिले। उसने सारा सत्य उगल दिया । आचार्य ने तब उसको कहा - यदि अमुक-अमुक द्रव्यों का विषम मात्रा में संयोजन किया जाए तो प्रचुर स्वर्ण और रत्न उत्पन्न हो सकते हैं। उसने वैसा ही किया। उन द्रव्यों का संयोजन होते ही एक दृष्टिविष सर्प पैदा हुआ और उसने तत्काल उस व्यक्ति को डस लिया । वह व्यक्ति मर गया । (गा. ६४६ टी. प. ५८ )
३६. कांटे से मरण
एक व्याध खुले पैर वन में गया। उसके पैर कांटों से बिंध गए। उसने न स्वयं उन कांटों को निकाला और न अपनी भार्या से उन्हें निकलवाया। एक बार वह वैसे ही वन में गया। हाथी ने उसे देखा और वह उसके पीछे दौड़ा। भयभीत होकर व्याध दौड़ने लगा । परन्तु जो कांटे पैरों में पहले चुभे हुए थे, वे दौड़ने के कारण और अधिक गहरे मांस तक पहुंच गए। वह अत्यंत पीड़ित होकर छिन्नमूल वृक्ष की भांति जमीन पर गिर पड़ा, बेहोश हो गया। पीछे से हाथी आया और उसे रौंदकर मार डाला । (गा. ६६२, ६६३ टी. प. ६२, ६३ )
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३७. शल्योद्धरण से बचाव
एक व्याध, जूते पहने बिना ही, वन में गया। वहाँ उसके पैरों में अनेक कांटे चुभे । वह उनको निकालने लगा । अनेक कांटे निकल गए पर कुछेक कांटों को वह निकाल नहीं सका। वह घर गया। अपनी पत्नी से सारे कांटे निकलवाकर पूरे पैर पर अंगुष्ठ आदि से मर्दन करवाया। फिर जहां-जहां कांटे चुभे थे वहां-वहां दंतमल अथवा कानों कि मिट्टी से उन छेदों को भर दिया। वह स्वस्थ हो गया। एक बार वह पुनः वन प्रदेश में गया। एक जंगली हाथी ने उसे देखा । वह व्याध हाथी के भय से भागा और सुरक्षित घर आ गया । (गा. ६६२, ६६३ टी. प. ६३)
३८. अंतःपुर का प्रमादी रक्षक
एक राजा ने कन्याओं के अंतःपुर की रक्षा के लिए एक व्यक्ति को रखा। वे राजकन्याएं गवाक्ष से इधर-उधर देखती थीं। वह रक्षक उनका वर्णन नहीं करता था। धीरे-धीरे वे कन्याएं अग्रद्वार से बाहर जाने-आने लगीं। तब भी वह उनको निषेध नहीं करता था । इस प्रकार वर्जित न करने के कारण कुछेक कन्याएं किसी धूर्त के साथ भाग गईं। यह बात किसी ने राजा के कानों तक पहुंचाई। राजा ने उस रक्षक का सर्वस्व हरण कर उसे मार डाला और अंतःपुर के लिए दूसरा रक्षक नियुक्त कर दिया । (गा. ६६७, ६६८ टी. प. ६३, ६४ )
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