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सम्पादकीय
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छूट
शब्दों की जोड़-तोड़ संबंधी अनेक अशुद्धियां हैं, जैसे- तु दडिव (तुद डेव ) व्यभा ६५ आदि अनेक स्थलों पर शब्द भी हैं जैसे- गा० ५८ में 'अन्नं च छाउमत्थो' के स्थान पर 'छाउमत्थो' से गाथा प्रारम्भ होती है ।
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कहीं-कहीं श्लोक के पूर्वार्द्ध के शब्द उत्तरार्ध तथा उत्तरार्ध के शब्द पूर्वार्द्ध में छप गये हैं। अनेक स्थलों पर तो संस्कृत के शब्द भी छप गये हैं। जैसे- ३०८६५वीं गाया में 'पूर्व तु किटी असतीए' आदि अनेक अशुद्धियों के कारण मुद्रित व्यवहार भाष्य के केवल महत्त्वपूर्ण पाठान्तरों का ही हमने उल्लेख किया है।
अन्य ग्रन्थों में प्रकाशित व्यभा के संवादी गाथा के पाठान्तर देने का उद्देश्य था कि विद्वानों को एक ही स्थान पर पाठभेद देखने में सुविधा हो सके।
टीकाकार की विशेष टिप्पणी का भी हमने टिप्पण में उल्लेख किया है। जहां कहीं टीकाकार ने किसी विशेष शब्द का संक्षिप्त अर्थ किया है उसका टिप्पण में उल्लेख कर दिया गया है जैसे-एकाहं नाम अभक्तार्थः आदि इसी प्रकार देशी शब्दों के लिए जहां कहीं 'देशीत्यात्' 'देशीवचनमेतत्' आदि का उल्लेख हुआ है उनका भी टिप्पणों में उल्लेख कर दिया गया है। जैसे मूइंग इति देशीपदं मत्कोटवाचकम् आदि ।
यत्र-तत्र टीकाकार ने अलाक्षणिक मकार, पादपूर्ति रूप जे, इ, र आदि का उल्लेख किया है, उसका भी हमने पादटिप्पण में उल्लेख किया है। तथा अन्य व्याकरण सम्बन्धी विशिष्ट निर्देश का उल्लेख भी पादटिप्पण में किया है। जैसे- सूत्रे विभक्तिलोप आर्षत्वात् ।
हस्तप्रतियों में अनेक गाथाओं के आगे 'दार' का उल्लेख है पर उन सबको द्वारगाथा नहीं माना जा सकता। फिर भी यदि एक भी प्रति में 'दार' का उल्लेख है तो हमने उस गाथा के आगे 'दार' का संकेत कर दिया है।
व्यवहार भाष्य में कहीं-कहीं गाथाओं का क्रमव्यत्यय मिलता है। इसका संभवतः एक कारण यह रहा होगा कि प्रति लिखते समय लिपिकार द्वारा बीच में एक गाथा छूट गयी। बाद में ध्यान आने पर वह गाथा दो या तीन गाथा के बाद लिख दी गयी । प्रति की सुंदरता को ध्यान में रखते हुए इस बात का संकेत नहीं दिया गया कि गाथा में क्रमव्यत्यय हुआ है। इस बात की पुष्टि टीका की व्याख्या के आधार पर तथा पौर्वापर्य के आधार पर हो जाती है। ऐसे स्थलों का हमने पादटिप्पण में उल्लेख कर दिया है, जैसे - व्यभा. गा. ३२७ ।
कहीं-कहीं प्रतियों में लिपिकार की अनवधानता से पूर्ववर्ती गाथा का पूर्वार्द्ध तथा बाद में आने वाली गाथा का उत्तरार्ध लिख दिया गया है। बीच की दो लाइनें छूट गयीं। ऐसे प्रसंगों का हमने पादटिप्पण में उल्लेख कर दिया है।
आदर्शों का लेखन मुनि एवं यतिवर्ग करते थे। वे व्याख्यान की सामग्री के लिए प्रसंगवश कुछ संवादी गाथाओं को हासिए में लिख देते थे। कालान्तर में अन्य लिपिकों द्वारा जब उस आदर्श की प्रतिलिपि की जाती तब 'हासिए' में लिखी गाथाएं मूल में लिख दी जातीं। व्यवहार भाष्य में भी अनेक गाथाएं प्रसंगवश प्रक्षिप्त हुई हैं। उदाहरण के लिए निम्न उद्धरण प्रस्तुत किया जा सकता है
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गये
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अमिलायमल्ल (गा. १२७८) गाथा का मूल भाष्य के साथ कोई संबंध नहीं है टीका में रोहिणेय की कथा दी गयी है। उसमें यह गाया रोहिणेय के मुख से कहलवाई है। लेकिन कालान्तर में यह गाथा मूल भाष्य के साथ जुड़ गयी। यह गाथा सभी हस्तप्रतियों में मिलती है। अतः हमने भाष्य के क्रमांक में इसे जोड़ा है। कुछ गाथाएं अन्य आचार्यों की थीं। वे भी कालान्तर में भाष्य के साथ जुड़ गयीं, जैसे- २२४७ वीं गाथा के बारे में टीकाकार स्पष्ट उल्लेख करते हैं कि अयमेव वृत्तबद्धोऽर्थोऽन्येनाचार्येण श्लोकेन बद्धस्तमेवाह।" यह गाथा २२४६ की ही संवादी है तथा अन्यकर्तृकी है पर यह कालान्तर में भाष्य के साथ जुड़ गयी। सभी हस्तप्रतियों में भी यह भाष्यगाथा के क्रम में है। जहां भी हमें गाथाएं प्रक्षिप्त लगीं उनके बारे में हमने पादटिप्पण में संक्षिप्त टिप्पणी प्रस्तुत कर दी है।
प्राचीनकाल में पूर्ववर्ती आचार्यों की रचना को उत्तरवर्ती आचार्य आंशिक रूप से अपनी रचना के साथ बिना किसी नामोल्लेख के जोड़ लेते थे । अथवा कुछ पाठभेद के साथ उसे अपनी रचना का अंग बना लेते थे। जैसे आवश्यक निर्युक्ति की अस्वाध्याय संबंधी गाथाएं औघनियुक्ति, निशीथभाष्य तथा व्यवहारभाष्य में मिलती हैं। इस पूरे प्रकरण को भाष्यकार ने अपने ग्रंथ का अंग
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