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________________ २४] व्यवहार भाष्य बना लिया है पर साथ ही गाथाओं में परिवर्तन एवं परिवर्धन भी किया है। कहीं-कहीं चरण एवं श्लोक का पूर्वार्द्ध तथा उत्तरार्ध भी परिवर्तित एवं आगे-पीछे मिलता है, जैसे-निशीथभाष्य की १२५३वीं गाथा का पूर्वार्द्ध व्यभा ३४२४ के पूर्वार्द्ध के समान है तथा उसका उत्तरार्ध व्यभा ३४२६ के पूर्वार्द्ध का संवादी है। हमने पादटिप्पण में भी सभी ग्रंथों के पाठभेद एवं संवादी प्रमाण दे दिये हैं जिससे शोध विद्यार्थी को यह परिवर्तन देखने में सुविधा हो सके। एक ही प्रकरण में इतने पाठभेद एवं परिवर्तन वाचनाभेद, स्मृतिभ्रंश तथा लिपिकों की असावधानी आदि अनेक कारणों से हो सकते हैं। विद्वानों ने पाठभेद के अनेक कारणों की मीमांसा की है। उन कारणों का प्रभाव भाष्य की प्रतियों पर भी पड़ा है अतः कोई भी प्रति ऐसी नहीं मिली जिसके सभी पाठ दूसरी प्रति से मिलते हों। प्रयुक्त प्रतियों में वर्णसाम्य की त्रुटियां भी मिलती न लिखे जाने के कारण उनका भेद करना कठिन होता है जैसे-च और व, ठ और व, द और ब। कहीं-कहीं वर्णसाम्य होने के कारण लिपिकारों द्वारा बीच का एक वर्ण छूट भी गया है जैसे-अववाय के स्थान पर अवाय, उववाय के स्थान पर उवाय आदि। वर्ण विपर्यय से होने वाली अशुद्धियां भी इन प्रतियों में अनेक स्थलों पर मिलती हैं। जैसे-वेदयंतो-देवयंता, बितियोतिबियो गहणं-हगणं, मूलदेवो-देवमूलो आदि। व्यञ्जन ही नहीं स्वर संबंधी विपर्यय के भी अनेक उदाहरण प्रयुक्त प्रतियों में देखने को मिलते हैं, जैसे-३६६१वीं गाथा में क प्रति में छम्मीसं के स्थान पर छम्मासं पाठ मिलता है। प्रस्तुत ग्रंथ की हस्तप्रतियों में पाठभेद ही नहीं, गाथाओं में भी अनेक स्थलों पर विभेद मिलता है। किसी प्रति में एक गाथा मिलती है तो किसी में उसके स्थान पर उसी की संवादी अनेक गाथाएं भी प्राप्त होती हैं। औचित्य के अनुसार गाथाओं को मूल भाष्य में तथा पाठभेद की गाथाओं को टिप्पण में दे दिया है। उदाहरण के लिए देखें गा. ५८ ५६ एवं ८६८ की गाथाओं के टिप्पण। अ प्रति में लिपिकार की लिखावट की भिन्नता अथवा उच्चारण भेद के प्रभाव से प्रायः ल के स्थान पर ण, भ के स्थान पर त तथा ध के स्थान पर व का प्रयोग मिलता है वल्लिदुर्ग-वण्णिदुगं भिण्णपिंडं तिण्णपिंड धमएण वमएण आदि। हमने कहीं-कहीं ही ऐसे पाठान्तरों का उल्लेख किया है। प्रति परिचय अ : यह प्रति देला के उपाश्रय अहमदाबाद से प्राप्त है। इसका क्रमांक ६४६६ है। इसमें १०६ पत्र हैं। प्रत्येक पत्र में करीबन १५ पंक्तियां हैं। प्रति साफ-सुथरी एवं स्पष्ट है। लिपिकार ने प्रशस्ति में २४ संस्कृत गाथाएं लिखी हैं तथा अंत में इति प्रशस्तिकाव्यानि पत्तनवास्तव्य सं. षीमसिंह. सहसाभ्यां। पु. समधर देवदत्त नोताइसर सुत हेमराज सोनपाल धरणा-अमोपाल-पूनपाल-आसपालप्रमुख कुटुंबयुताभ्यां लिखितमिदं पुस्तक। आचंद्रा( नंदतात्॥ सं० १५३८ वर्षे ॥२॥ ब : यह प्रति लालभाई दलपतभाई विद्या मंदिर अहमदाबाद से प्राप्त है। इसका क्रमांक १२ है। इसमें ७४ पत्र हैं। इसके अक्षर स्पष्ट एवं साफ हैं। अंतिम पत्र का पिछला पन्ना खाली है। प्रत्येक पत्र में लगभग १७ पंक्तियां हैं। इसके अंत में प्रशस्ति रूप में निम्न गाथा मिलती है जयति जिणो वीरवरो, सक्खह तवणिज्जपुंजपिंजरदेहो। सबसुरासुरनरवर, मउडतडावली पावीढंताडो॥ गाथा ४६२६ ॥छ॥श्री॥ व्यवहारभाष्यं समाप्तं ॥श्री। अनुमानतः इसका समय १६वीं शती होना चाहिए। क : यह प्रति देला का उपाश्रय अहमदाबाद से प्राप्त है। इसका क्रमांक १०५१५ है। इसमें १२ पत्र हैं। वर्तमान में इसमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002531
Book TitleAgam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya
Original Sutra AuthorSanghdas Gani
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages860
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vyavahara
File Size14 MB
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