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सम्पादकीय
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केवल दसवें उद्देशक की गाथाएं हैं। प्रत्येक पत्र में करीबन १८ पंक्तियां हैं। इसम प्रशस्तिरूप में ब प्रति वाली गाथा ही लिखी हुई है। गाथा ४६२६ व्यवहार भाष्य समाप्त ॥छ। प्रस्तुत प्रति ब प्रति से मिलती है। यह प्रति लगभग १६वीं शती की होनी चाहिए। यह प्रति किसी समय सम्पूर्ण थी लेकिन कालान्तर में इसके प्रारम्भिक पन्नों का लोप हो गया ऐसा प्रतीत होता है क्योंकि पुष्पिका के अंत में ग्रंथाग्र ४६२६ लिखा हुआ है।
स : यह प्रति भंडारकर इंस्टीट्यूट पूना से प्राप्त है। इसमें कुल १२७ पत्र हैं। प्रत्येक पत्र में लगभग १३ पंक्तियां हैं। यह प्रति साफ-सुथरी है। अंत में प्रशस्ति रूप में जयति"ब प्रति वाली गाथा लिखी हुई है। प्रस्तुत गाथा के बाद “णमो सुतदेवयाए भगवतीए॥ इति व्यवहारभाष्यं समाप्तं। शुभं भवतु ।" का उल्लेख है। तथा इसके पश्चात् लिपिकर्ता की ओर से निम्न गाथा लिखी
यादृशं पुस्तकं दृष्ट्वा, तादृशं लक्षितं मया।
यथो (अतो) शुद्धमशुद्धं वा, मम दोषो न दीयति (दीयते)। ॥कल्याणमस्तु॥ साह श्री वच्छासुत साहसहस्रकिरणेन पुस्तकमिदं गृहीतं सुतवर्द्धमानं शांतिदासपरिपालनार्थं नवूलखा व्य उ. जो उ लेखक जो . भूपति ॥ ग्रं. ५२०० माहाजतइ।
पुस्तक का अंतिम अवतरण पुष्पिका कहलाता है। उसमें दी गयी सूचनाएं ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण होती हैं। पर प्राचीन प्रतियों में लिपिकर्ता विशेष जानकारी प्रस्तुत नहीं करते थे अतः व्यभा की हस्तप्रतियों में भी विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं हुई है। चारों प्रतियों में भाष्यकार और रचनाकाल आदि के बारे में कोई उल्लेख नहीं मिलता। आगमसाहित्य का सम्पादन
आज से चालीस वर्ष पूर्व मंचर (महाराष्ट्र) में पूज्य गुरुदेव के मन में आगम-सम्पादन की तीव्र इच्छा जागृत हुई। मुनि नथमल जी (वर्तमान आचार्य महाप्रज्ञ) ने गुरुदेव की इच्छा को संकल्प का रूप दिया और आगम-सम्पादन के कार अनेक साधु-साध्वियों की इस कार्य में नियुक्ति हुई और देखते-देखते यह कार्य गुरुदेव की प्रमुख प्रवृत्ति बन गया।
तब से लेकर अब तक आगम-सम्पादन का कार्य अबाध गति से चल रहा है। गुरुदेव तुलसी आगम कार्य के प्रति अपनी अनुभूति इन शब्दों में व्यक्त करते हैं-"विहार चाहे कितना ही लम्बा क्यों न हो, आगम कार्य में कोई अवरोध नहीं होना चाहिए। आगम-कार्य करते समय मेरा मानसिक तोष इतना बढ़ जाता है कि समस्त शारीरिक क्लांति मिट जाती है। आगम-कार्य हमारे लिए खुराक है। मेरा अनुमान है कि इस कार्य के परिपार्श्व में अनेक-अनेक साहित्यिक प्रवृत्तियां प्रारंभ होंगी, जिनसे हमारे शासन की बहुत प्रभावना होगी।"
गुरुदेव तुलसी के वाचना प्रमुखत्व एवं आचार्य श्री के सम्पादकीय कौशल से विशाल आगम-साहित्य प्रकाश में आ चुका है। बत्तीस आगम का मूलपाठ शब्द इन्डेक्स सहित प्रकाशित हो चुके हैं। अनेक आगमों के अनूदित संस्करण भी प्रकाश में आए हैं। परिपार्श्व में आगम-साहित्य संबंधी अन्यान्य कार्य भी सम्पादित हुए हैं। एकार्थककोश, निरुक्तकोश, देशीशब्दकोश, आगंम वनस्पति कोश आदि। इन प्रकाशित आगम ग्रंथों को विद्वानों ने विशेष रूप से सराहा है तथा इस कार्य को अनुपम माना है। इस कार्य की उत्तमता और प्रामाणिकता में पूज्य गुरुदेव का असाम्प्रदायिक, उदार एवं विनम्र दृष्टिकोण प्रमुख रहा है। आगमकार्य प्रारम्भ करने से पूर्व पूज्य गुरुदेव ने आगम कार्य में संलग्न साधुओं को प्रतिबोध देते हुए कहा-“यह कार्य बहुत दायित्वपूर्ण है। इस गंभीर दायित्व का हमें अनुभव करना है। आगम का जो सही अर्थ है उसे पूरी सच्चाई के साथ प्रस्तुत करना है। हमारी साम्प्रदायिक परम्परा से भिन्न अर्थ फलित होता हो तो भले हो। हमें आगम के मौलिक अर्थ की प्रस्तुति करनी है। साम्प्रदायिक परम्परा भेद को पादटिप्पण में उल्लिखित किया जा सकता है किन्तु मूल में परिवर्तन या परिवर्धन नहीं करना है।" गुरुदेव के इस असाम्प्रदायिक एवं उदार दृष्टिकोण ने इस कार्य की गुरुता एवं महत्ता को शतगुणित कर दिया। आज तक सम्पादित एवं अनूदित प्रकाशित आगम-साहित्य की सूची इस प्रकार है
१. अंगसुत्ताणि भाग १, २, ३,-मूलपाठ, समीक्षात्मक पाठान्तर आदि।
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