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________________ २२] व्यवहार भाष्य टीका की व्याख्या एवं पौर्वापर्य के अनुसार 'अणंतरा' पाठ अधिक संगत लगता है। अनेक स्थलों पर जहां प्रतियों एवं टीका में एक ही अर्थ के दो पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग मिलता है, वहां हमने टीका की व्याख्या में मिलने वाले पाठ को प्राथमिकता दी है। जैसे ४३वीं गाथा में सभी प्रतियों में 'आहाकम्मामंतण' पाठ मिलता है। हमने टीका की व्याख्या के आधार पर 'आहाकम्मनिमंतण' पाठ स्वीकृत किया है। इसी प्रकार सभी प्रतियों में 'निग्गमप्पवेसे' पाठ मिलता है पर हमने टीका का 'निक्खमप्पवेसे' पाठ स्वीकृत किया है। आवश्यक नियुक्ति, निशीथ एवं बृहत्कल्प आदि के भाष्यों की सैकड़ों गाथाएं व्यवहार भाष्य में संक्रान्त हुई हैं। अतः अनेक स्थलों पर अन्य ग्रंथों के पाठ के आधार पर भी पाठ का निर्धारण किया है। अनेक गाथाएं जो न अन्य ग्रंथों में हैं और न टीका में व्याख्यात हैं वहां केवल प्रतियों तथा प्रसंग की समीचीनता के आधार पर ही पाठ संशोधन किया है। कहीं-कहीं किसी प्रति में कोई शब्द, चरण या गाथा नहीं है उसका निर्देश हमने पादटिप्पण में x चिह्न द्वारा किया है। जहां पाठान्तर एक से अधिक शब्दों पर या एक चरण पर है उसे ' ' चिह्न द्वारा दर्शाया है, जिससे पाठक को सुविधा हो सके। प्रस्तुत भाष्य में जहां भी समान गाथाएं पुनरुक्त हुई हैं उनमें जहां जैसा पाठ मिला उसको वैसे ही रखा है। अपनी ओर से पाठ को संवादी या समान बनाने का प्रयत्न नहीं किया, जैसे-व्यभा १६१ तथा ६०६ ।। जहां कहीं हमें प्रति में प्राचीन रूप मिले वहां मूलपाठ में उन्हीं को प्रधानता दी है, लेकिन जहां प्रतियों में पाठ नहीं मिले वहां उन पाठों को तद्वत् रखा है। प्राचीनता के व्यामोह में व्यञ्जनों को बदलने की कोशिश नहीं की है। प्रामाणिकता की दृष्टि से ऐसा करना आवश्यक था अतः इसी ग्रंथ में पाठकों को जध-जह, एते-एए, जीत-जीयं, तित्थगर-तित्थयर, होति-होइ आदि दोनों प्रकार के पाठ मिलेंगे। प्राचीनता की दृष्टि से जहां कहीं हमें मूल व्यञ्जनयुक्त पाठ मिला हमने उसे मूल में स्वीकार किया है लेकिन पाठ न मिलने पर यकारश्रुति वाले पाठ को स्वीकृत किया है, तकारश्रुति वाले पाठ जैसे-बितितो, कणतो, आयरितो, विणतो आदि को नहीं। प्राकृत व्याकरण के अनुसार संयुक्त व्यंजन से पूर्व का स्वर ह्रस्व हो जाता है। हमें दोनों रूप मिले पर प्राचीनता की दृष्टि से हमने दीर्घ रूप को ही स्वीकार किया है और न मिलने पर यत्र-तत्र ह्रस्व रूप भी। .. हेमचन्द्र की व्याकरण से प्रभावित व्यञ्जनविशेष एवं स्वरविशेष से जुड़े पाठान्तरों का हमने प्रायः उल्लेख नहीं किया है। जैसेआदेस-आएस तधा-तहा होति-होइ बोधव्वा-बोद्धब्बा कुक्कुडग-कुक्कुडय पण्णा-पन्ना असंखेज-असंखिज्ज तेणोत्ति-तेणुत्ति पभू-पहू सोधी-सोही परिसडिति-परिसडेंति साहइ-साहई कधिति-कति आदि। सप्तमी आदि विभक्ति के लिए 'य' का प्रयोग प्राचीन है। अतः जहां भी हमें 'य' विभक्ति वाले पाठ मिले वहां हमने उनको प्राथमिकता दी है। जैसे-वीसाय, वीसुभिताय आदि। इसी प्रकार सप्तमी विभक्ति के अर्थ में जहाँ अंसि और म्मि दोनों विभक्ति वाले रूप मिले वहां हमने अंसि विभक्ति वाले रूप को प्राचीन मानकर स्वीकृत किया है। जैसे पुव्वंसि, चित्तंसि आदि। अनेक स्थलों पर स्पष्ट प्रतीत होता था कि हस्तप्रतियों में लिपिकर्ता द्वारा लिपि सम्बंधी भूल से पाठभेद हुआ है, उन पाठान्तरों का उल्लेख प्रायः नहीं किया है। पर कहीं-कहीं उसके दूसरे रूप बनने की संभावना थी, वहां ऐतिहासिकता की दृष्टि से भी हमने उन पाठान्तरों का उल्लेख किया है, जैसे-ठावित्तु-वावित्तु। नीचे टिप्पणों में दी गईं अतिरिक्त गाथाओं के पाठान्तरों का हमने उल्लेख नहीं किया है पर उनके पाठशोधन का लक्ष्य अवश्य रखा है। सम्पादन की असावधानी के कारण टीकायुक्त प्रकाशित व्यवहार भाष्य में अनेक स्थलों पर अशुद्धियां रह गयी हैं। उसमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002531
Book TitleAgam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya
Original Sutra AuthorSanghdas Gani
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages860
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vyavahara
File Size14 MB
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